इंदौर में टीम बनी, पर चेहरों से पहले कालिख बोल गई

बीजेपी की नई नगर टीम की घोषणा होते ही जश्न की जगह विरोध में लगे नारे

इंदौर। जहाँ कल तक बीजेपी नेता अधिकारियों पर बरस रहे थे, आज वही नाराज़गी अपने ही संगठन के भीतर फूट पड़ी है ..यूं कहें कि इंदौर में सियासत ने फिर नया मोड़ ले लिया है । हल्की ठंड के वातावरण के बीच शहर में जारी लगातार विवादों से राजनीति में गर्माहट है। बीजेपी की नई नगर टीम की घोषणा होते ही जश्न की जगह विरोध के नारे सुनाई दिए। नगर अध्यक्ष सुमित मिश्रा के पोस्टरों पर कालिख पोती गई, पुतला जलाया गया और नाराज़गी के स्वर भी खुलकर सामने आए। नाराज़ धड़े की ऐसी प्रतिक्रिया अनुशासन के ढांचे पर सवाल है,जिसे भाजपा अपनी सबसे बड़ी ताकत मानती रही है। पार्टी के भीतर कई वर्षों से जो असंतोष धीरे-धीरे सुलग रहा था, वह अब सड़कों पर उतर आया है। संगठन ने जब शहर की नई टीम बनाई तो तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं ने खुद को नज़रअंदाज़ महसूस किया। चयन-प्रक्रिया को लेकर असंतोष पहले से था, और जैसे ही सूची सामने आई, वह असंतोष विस्फोट बन गया। कार्यकर्ता मानते हैं कि निर्णय कुछ चुनिंदा लोगों के बीच सीमित रह गए, जबकि पार्टी की आत्मा ‘सर्वसम्मति’ और ‘संवाद’ में बसती है।

 

इंदौर में बीजेपी का संगठन अनुशासित छवि का पर्याय माना जाता रहा है, वहीं यह दृश्य बेहद असहज कर देने वाला था। पार्टी दफ्तर के सड़क किनारे लगे पोस्टरों पर कालिख चढ़ी,नगर बीजेपी के अध्यक्ष सुमित मिश्रा का पुतला जलता दिखा। वैसे ये विरोध व्यक्ति-विशेष के खिलाफ नहीं दिखा, बल्कि उस प्रणाली के खिलाफ दिखा, जो खुद को सबसे संगठित और अनुशासित बताती आई है। बीजेपी के पुराने कार्यकर्ताओं के बीच यह चर्चा है कि नई टीम में शहर की अलग अलग विधानसभाओं के बीच असंतुलन है। नतीजा यह हुआ कि ‘टीम निर्माण’ का मकसद एकता लाना था, पर उसने भीतर की दरारों को उजागर कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से यह घटना बेहद अहम है। क्योंकि जिस पार्टी ने अनुशासन को अपनी पहचान बनाया, उसी में इस तरह का सार्वजनिक विरोध यह संकेत देता है कि सब कुछ सतह पर जितना शांत दिखता है, भीतर उतनी ही हलचल है। संगठन की मजबूती सिर्फ घोषणाओं या पदों से नहीं, बल्कि उस भरोसे से बनती है जो कार्यकर्ता के दिल में होता है,जो बीजेपी की मजबूती रही है । जब वही भरोसा डगमगाने लगे, तो पोस्टरों पर कालिख और पुतलों की आग, दोनों उसी टूटे विश्वास के प्रतीक भी बन जाते हैं। इंदौर की जनता भी इस सबको देख रही है। एक ऐसा शहर जो प्रशासनिक दक्षता, स्वच्छता और संगठन की एकजुटता के लिए मिसाल रहा है, वहाँ अब सियासत का यह नया चेहरा चौंकाने वाला है। सवाल यह नहीं कि पुतला क्यों जला, सवाल यह है कि आखिर पार्टी के भीतर ऐसी नौबत ही क्यों आई। भाजपा नेतृत्व के लिए यह घटना सिर्फ शर्मिंदगी नहीं, चेतावनी भी है। अगर भीतर का संवाद और पारदर्शिता बहाल नहीं की गई, तो आने वाले समय में यह असंतोष और गहराएगा। हर बड़े संगठन की असली परीक्षा तब होती है जब उसके भीतर के असंतुष्ट खुद विरोध का झंडा उठा लें। इंदौर की इस घटना ने दिखा दिया कि भाजपा को अब अपने अनुशासन की परिभाषा पर फिर से विचार करना होगा , वरना कालिख अब पोस्टर तक सीमित नहीं रहेगी, विचारधारा के चेहरे पर भी चढ़ सकती है।