जीवन के अंतिम सत्य से फिर हुआ सामना – प्रो. देवेन्द्र कुमार शर्मा

दुनिया के कई दार्शनिकों ने कहा है कि केवल मृत्यु एक मात्र निश्चित सत्य है। मृत्यु के अतिरिक्त जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है।आमजन भी बातचीत में यही कहते हैं कि कल क्या होगा कोई नहीं जानता। केवल एक बात निश्चित है, मृत्यु सबको आनी है, यही शाश्वत सत्य है। कुछ दिन पूर्व इसी सत्य से सामना हुआ – भाई का देवलोक गमन हो गया। अपार दुःख है। दुःख तो होता ही है यह जानते हुए भी कि मृत्यु जीवन का एक मात्र सनातन सत्य है।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के अनुसार आत्मा अमर होती है। देवलोक में विराजित जगत नियंता के आदेशानुसार आत्मा का विचरण होता है, ऐसा हिन्दू धर्म शास्त्र का मानना भी है। यही शाश्वत सत्य भी है। जब तक आत्मा इस नश्वर शरीर में विद्यमान रहती है तब तक ही मनुष्य जीवित रहता है। चिकित्सा विज्ञान की मान्यता कुछ भी हो निश्चित तो यही है कि जब तक आत्मा शरीर में विद्यमान है तब तक ही सांस चलेगी; जब तक सांस चलेगी तभी तक शरीर उपयोगी है। सांस रूकी शरीर निरर्थक हो जाता है। जब शरीर की नश्वरता का सत्य समझने में आ जाता है तब जीवन के प्रति दृष्टि ही बदल जाती है। सत्य के इसी साक्षात्कार का परिणाम दुनियादारी, मोह-माया, अपार सम्पत्ति का त्याग होता है।

संसार त्यागने के लिए केवल यह अनुभूति ही काफी नहीं है कि शरीर नश्वर है एवं आत्मा अमर है। प्रत्येक ज्ञानवान व्यक्ति इस सत्य को स्वीकार करता है फिर भी प्रत्येक व्यक्ति सांसारिक सुखों का त्याग नहीं करता। सांसारिक सुखों के त्याग के लिए अद्भुत उच्चस्तरीय आत्मबल की आवश्यकता होती है। मन निर्लिप्त हो तभी त्याग संभव है, त्याग भी तभी संभव है जब सांसारिक जीवन की नश्वरता की अनुभूति होती है। सबकुछ मन और बुद्धि का खेल है। सद्बुद्धि जागृत हो जाए तो मानवमन को जीवन की नश्वरता समझ में आ जाती है। यह भी समझ में आ जाता है कि स्वार्थवश बहुत अधिक उठापटक निरर्थक है। सत्य केवल परित्याग है।
अधिकतर परित्याग की भावना अस्थायी होती है। एक दुःखद घटना मन को व्यथित करती है परिणाम स्वरूप दुनियादारी की निरर्थकता कुछ समय के लिए दिखायी देती है। यह एक क्षणिक आवेश जैसा होता है। क्षणिक आवेश में जो दुनियादारी का परित्याग करते हैं वह अस्थायी होता है, अंतर मन से नहीं होता। लोकलाज से उसे निभाना पड़ता है। जिनका मन निश्चित रूप से दुनियादारी से निर्लिप्त हो जाता है वे ही सांसारिक सुखों के परित्याग का वास्तविक आनन्द उठा सकते हैं। कुछ दिन पूर्व एक सज्जन के बारे में जानकारी मिली- उनकी वार्षिक आय 65 करोड़ रूपये थी किन्तु उन्होंने सबकुछ त्याग दिया और वैराग्य ले लिया। लगता है वैराग्य सचमुच मन में जागृत हुआ होगा। वैराग्य सफल है या असफल यह तो वैरागी ही तय सकता है। यदि एक क्षण भी मन में विचार आया कि त्रुटि हो गई, नहीं छोड़ना था, तो सब निरर्थक। क्षणिक दुःख के आवेश में उत्पन्न वैराग्य मन को वांछित शांति प्रदान नहीं कर सकता। केवल भौतिक त्याग ही साधुत्व नहीं है। साधुत्व तो तभी सार्थक है जब दुनियादारी की निरर्थकता की भावना स्वस्फुर्त हो। कोई अन्य तय नहीं कर सकता कि दुनियादारी का परित्याग सफल या असफल हुआ। त्यागी का मन ही श्रेष्ठ न्याय कर सकता है। यदि मन कमजोर पड़ा तो सब निरर्थक। त्यागी जीवन का निर्वाह बहुत कठिन होता है। त्यागी जीवन की सफलता तन-मन दोनों के संयुक्त प्रयास से ही संभव है। यह बहुत कठिन है जिसने यह संभव कर लिया उसका परित्याग सार्थक हो गया।