लघुकथा
पार्वती अक्सर अपने पुत्र कान्हा के साथ ईधर-उधर घूमने जाया करती थी। बच्चा खेलते-खेलते जिस घर रुक गया बस उसे भी वहीं रुकना होता था। बालमन तो हठी स्वभाव का होता है, जिस चीज पर दिल आ गया वही उसके लिए दुनिया की सबसे कीमती वस्तु बन जाती है। इस बार कान्हा एक ऐसे परिवार में गया जो शायद बहुत ज्यादा अमीर श्रेणी के परिवार में नहीं था, पर उनका दिल इतना अमीर था कि कान्हा की छोटी-छोटी जरूरतें, खेल सामाग्री और उनका विशाल हृदय कान्हा को वहीं रुकने पर मजबूर कर देता था। पार्वती के अत्यधिक प्रयत्न करने पर और कान्हा को समझाने पर भी वह अत्यधिक समय वहीं व्यतीत करता। पार्वती सदैव मन ही मन धन्यवाद देती की ईश्वर ने इन्हें मन से कितना अधिक धनवान बनाया है की मेरा कान्हा यहाँ आकर सबसे अधिक खुश होता है और अपनत्व से सराबोर होता है।
कुछ समय पश्चात पार्वती कान्हा के संग एक पार्लर गई। पार्लर वाली आंटी अत्यधिक समृद्ध थी। बड़ा आलीशान घर और उसी में आगे की तरफ पार्लर भी था। वहाँ पर कान्हा की नजर एक टूटी-फूटी पुरानी सी कार पर पड़ी। कान्हा तो था ही नटखट स्वभाव का, तुरंत उसे लेने की जिद करने लगा, पर वह आंटी उसे वह टूटा हुआ खिलौना खेलने के लिए नहीं दे सकी, क्योंकि अर्थ की संपन्नता तो कहीं अधिक थी पर हृदय में कहीं न कहीं निर्धनता का भाव था। कुछ समय पश्चात कान्हा का जन्मदिवस आया। शिव और पार्वती ने सत्यनारायण कथा के आयोजन को सुनिश्चित किया। जब शिव पूजन सामाग्री खरीदते वक्त पान की दुकान पर गया और पूजा के निमित्त पान के पाँच पत्ते लेने पर धनराशि देने लगा तो पान वाले ने यह कहकर मना कर दिया कि ईश्वर के निमित्त अच्छे कार्यों के लिए कोई धनराशि की आवश्यकता नहीं। जब शिव ने पार्वती को बताया तो वह बोली कि ईश्वर गरीबों को कितना अमीर दिल का बनाता है। कुछ दिनों पश्चात पार्वती कुछ काम से अपनी पुरानी परिचित नौकरनी के यहाँ गई। वो अब उसके यहाँ कार्य नहीं करती थी, पर जब वह उसके यहाँ गई तो उसकी बेटी ने कान्हा और पार्वती का इतने दिल से स्वागत किया। चाय-नाश्ता और मीठी मनुहार हर चीज पर भारी थी। कान्हा को खिलाया और उसकी पसंद की टॉफी भी दिलाई। पार्वती को उनका यह व्यवहार हृदय स्पर्शी लगा। पार्वती सोच रही थी की ईश्वर की बनी सृष्टि में किसी को अर्थ की संपन्नता मिली है तो किसी को भावों की। कुछ लोगों के अपनत्व हृदय को झकझोर देते है। वह सोचने लगी की सच में विशाल हृदय रखना सरल नहीं। ईश्वर की कृपा ही आपको भावों की संपन्नता देती है।
इस लघु कथा से यह शिक्षा मिलती है की अपनत्व के भावों में कोई कमी न आने दें। भाव ही हृदय स्पर्शी होते है। लक्ष्मी तो चंचला कही गई है। अर्थ की संपन्नता को अपनत्व पर हावी न होने दे और हमेशा गरीबों के अमीर भावों को शिरोधार्य करें। जब आप ईश्वर को कुछ अर्पित करते है तो उसी की दी हुई वस्तुओं में आप कुछ देना सीखते है। सृष्टि के संचालक को किस चीज की कमी है, पर शायद वह आपको अर्पण का भाव सिखाना चाहता है।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)