अपनत्व वाला भोज – डॉ. रीना रवि मालपानी

 लघुकथा

पार्वती के पति नीलकंठ सरकारी नौकरी में कार्यरत थे। उनकी नौकरी ऐसी थी जिसमें कुछ समय अंतराल के पश्चात अन्य जगह पर स्थानांतरण होता था। अबकी बार नीलकंठ के एक मित्र का स्थानांतरण था। कॉलोनी के कुछ लोगों ने आपस में बातचीत कर उसके जाने से पहले संयुक्त रूप से उसे होटल में खाना खिलाने का प्रस्ताव रखा, पर नीलकंठ को यह प्रस्ताव ठीक नहीं लगा। उसने अपनी पत्नी पार्वती को घर में ही भोजन बनाने को कहा। नीलकंठ का मानना था की हमें अपनत्व वाला भोजन कराना चाहिए जिसमें हम कुछ समय बैठकर बातचीत भी करें और आदर व सत्कार के साथ प्रेमपूर्वक खाना भी खिलाएँ। पार्वती ने भी पति की इच्छा अनुरूप ऐसा ही किया। पूरे लगन से स्वादिष्ट व्यंजन बनाए और प्रेमपूर्वक भोजन कराया। अपेक्षा अनुरूप भोजन की प्रशंसा नहीं हुई पर कुछ समय आनंद की अनुभूति जरूर हुई। एक आत्मीय मुलाक़ात सिद्ध हुई।

कुछ समय पश्चात नीलकंठ को भी स्थानांतरण की सूचना प्राप्त हुई। नीलकंठ के एक मित्र ने उसे भोजन पर आमंत्रित किया। जब पार्वती भी आमंत्रण में गई तो उसका हृदय द्रवित हो गया। उसने देखा की जिसने उसे भोजन पर आमंत्रित किया वह बीती रात से ही बुखार से पीड़ित थी। उसके पति का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था एवं बच्चा भी छोटा था, पर नीलकंठ और पार्वती को तैयारियों और अपनत्व में कहीं भी न्यूनता नहीं दिखाई दी। हर प्रकार के व्यंजन पूरे मनोयोग से बनाया गया था एवं प्रेमपूर्वक परोसा गया था। गपशप हुई और एक सकारात्मक पारिवारिक माहौल निर्मित हुआ। आज पार्वती अपनत्व वाले भोजन की कीमत को समझ रही थी। आज उसे नीलकंठ के वचन शब्दशः सत्य प्रतीत हो रहे थे। वह जान गई थी की होटल में करवाए हुए भोजन और घर में प्रेमपूर्वक व आदर-सत्कार से कराए भोजन में कितना अंतर होता है। उन दोनों ने खुले दिल से भोजन की प्रशंसा भी की, प्रेमपूर्वक ग्रहण भी किया और हृदय से धन्यवाद भी दिया।

इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है की कुछ मेल-मिलाप दिलों के रिश्ते को जीवंत बनाने के लिए होने चाहिए। अपनत्व वाला भोजन तो सामने वाली की खुशी के लिए बनाया जाता है जिसे पूर्ण आदर-सत्कार और प्रेम से परोसा जाता है और उस भोजन की खुले दिल से प्रशंसा भी होनी चाहिए क्योंकि हमारी पूरी जिंदगी इसी भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है।

*डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)*