इंदौर । सीताजी की खोज में निकले हनुमानजी के मार्ग में अनेक बाधाएं आती रही। पहले स्वर्ण से बने मेनार्क पर्वत, फिर सुरसा और अब सिंघीका नामक राक्षसी भी उनके मार्ग में आई। यह राक्षसी हम सबके जीवन में भी आती रहती है।यह कोई और नहीं, इर्ष्या है जो राहू की मां है। ईष्यालु वे लोग होते हैं, जो दूसरों को आगे बढ़ते देख उनकी प्रगति में बाधक बनते हैं। इर्ष्या से स्वर्गलोक के देवता भी नहीं बच पाए। देवऋषि नारद और देवराज इंद्र भी एक-दूसरे से इर्ष्या करते रहे। आधुनिक समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हम सबके जीवन में इर्ष्या की मनोवृत्ति देखने को मिलती है। रामकथा इस मनोवृत्ति से बचने का सबसे श्रेष्ठ माध्यम है। मन की विकृतियो को दूर कर संस्कारों का सृजन रामकथा से ही संभव है।
ये दिव्य विचार हैं प्रख्यात राम कथाकार दीदी मां मंदाकिनी श्रीराम किंकर के, जो उन्होंने आज संगम नगर स्थित श्री राम मंदिर परिसर में चल रहे रामकथा ज्ञान यज्ञ में सुंदरकांड के विभिन्न प्रसंगों की व्याख्या करते हुए व्यक्त किए। सुबह संगम नगर बी सेक्टर स्थित श्री चंदा विला पर सुंदरकांड का पाठ भी चल रहा है। यहां दीदी मां के सान्निध्य में प्रतिदिन पाठ के बाद कोरोना से मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की जा रही है। आज कथा शुभारंभ के पूर्व समाजसेवी प्रेमचंद गोयल, वैष्णव विद्यापीठ के कुलपति पुरुषोत्तम पसारी, अरविंद गुप्ता, अनूप जोशी, न्यायाधीश श्याम सुंदर दिव्वेदी, शांतिदेवी प्रेमचंदानी आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया।
दीदी मां ने कहा कि ओलंपिक खेलों में तो आगे वाले खिलाड़ी को टंगड़ी मारकर गिराने वाले को एक्शन रि-प्ले की मदद से देखा जा सकता है, लेकिन संसार के ओलंपिक खेलों में इस तरह की टंगड़ी मारने वालों को यहां नहीं तो ऊपर जाने पर अवश्य हिसाब चुकाना पड़ता है। रामचरित मानस समाज का दर्पण है। हम इस दर्पण में स्वयं को देखने का भी प्रयास करें। हनुमानजी अद्भुत और विलक्षण व्यक्तित्व के धनी है। उनके लिए सबसे पहला काम अपने आराध्य प्रभु राम की सेवा और आज्ञा पालन का रहा। सीताजी की खोज में सिंघिका नामक जिस राक्षसी के मिलने का जिक्र पुराणों में है, वह छिपकर छल-कपट से आक्रमण करने वाली राक्षसी है। सिंघिका केवल त्रेता युग में ही नहीं, आधुनिक युग में भी मौजूद है। हमारे अच्छे और शुभ संकल्पों के लक्ष्य को प्राप्त करते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो इस तरह की राक्षसी प्रवृत्तियां आज भी हमारे मार्ग में बाधक बनती है। यह राक्षसी हमारे अंदर का इर्ष्या भाव है, जो हमें अच्छे लोगों की प्रगति में बाधक बनने के लिए उकसाता है। लाख कोशिश करने पर भी हममें से बहुत कम लोग इस इष्या भाव से बच पाते हैं। हमारे पुण्य का जितना बैलेंस मृत्युलोक में होगा, स्वर्गलोक में भी हमें उसी अनुपात में भोग की सुविधा मिलेगी। यह अलग बात है कि देवता भी इस इष्या भाव से बच नहीं पाते हैं। अपने दुख से ज्यादा दूसरों के सुख से हम ज्यादा दुखी रहते हैं। यह प्रवृत्ति ही हमें पतन की ओर ले जाती है। रामकथा ऐसा माध्यम है जो हमें ऐसी कुबुद्धि से बचाकर अपने लक्ष्य की ओर पहुंचाने में सार्थक भूमिका अदा करती है। रामकथा केवल शरीर से नहीं, मन, बुद्धि और चित्त के साथ श्रवण करना चाहिए। श्रद्धा और विश्वास के बिना की गई भक्ति सार्थक नहीं हो सकती।