देहाभिमान से मुक्त हुए बिना भक्ति और शांति रूपी सीता की प्राप्ति संभव नहीं –  दीदी मां मंदाकिनी

इंदौर, । हनुमानजी की तरह हम सब भी भक्ति और शांति रूपी सीता की खोज में जुटे हुए हैं। हमारी भी यात्रा अनंत है। जैसे हनुमानजी को अशोक वाटिका में सीता की प्राप्ति के बाद ही वात्सल्य भाव का बोध हुआ, वैसे ही हम सबके जीवन में भी वास्तविक शांति तभी महसूस होगी जब हम देहाभिमान से मुक्त हो सकेंगे। हम सबको अपने शरीर का अभिमान है। शास्त्रों में कहा गया है कि शरीर नहीं, आत्मा महत्वपूर्ण है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में संकेत किया है और यह शाश्वत सत्य है कि राम परम सत्य है जो वर्तमान में भी है, भूतकाल में भी थे और भविष्य में भी रहेंगे ही।

      ये दिव्य विचार हैं प्रख्यात राम कथाकार, दीदी मां मंदाकिनी श्रीरामकिंकर के, जो उन्होंने संगमनगर स्थित प्राचीन श्रीराम मंदिर परिसर में चल रहे रामकथा ज्ञान यज्ञ  में उपस्थित भक्तों को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। कथा के दौरान आज भी सभी भक्तों ने मास्क पहनकर कथा सुनी और दीदी मां के आव्हान पर संकल्प भी व्यक्त किया कि वे कोरोना से मुकाबले के लिए सभी निमयों का पालन करते हुए  कथा में आएंगे और अपने आसपास के लोगों को भी कोरोना के नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करेंगे। कथा शुभारंभ के पूर्व गीता भवन ट्रस्ट के अध्यक्ष गोपालदास मित्तल, समाजसेवी प्रेमचंद गोयल, राधेश्याम शर्मा गुरुजी, सुभाष गोयल बजरंग, आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। कथा का शुभारंभ अयोध्या से आए भजन गायकों द्वारा मनोहारी प्रस्तुतियों के साथ हुआ।

दीदी मां ने सुंदरकांड के विभिन्न प्रसंगों की व्याख्या करते हुए कहा कि हनुमानजी का व्यक्तित्व परिपूर्ण है। उनकी लीलाओं को यदि हम भागवत गीता के ज्ञान भक्ति कर्मयोग से जोड़ें तो उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्र इतना पवित्र और प्रेरक है कि उनका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। संसार में हम छोटे होते हुए भी बड़े बनने का या स्वयं को बड़ा दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हनुमानजी अशोक वाटिका में जाकर अपनी सीता मैया का वात्सल्य पाने के लिए बड़े से छोटे, नन्हें शिशु भी बनने को तैयार हो जाते हैं। हमारे प्रभु राम का स्वभाव भी उस मां की तरह है जो गंदे से गंदे अपने शिशु को नहला-धुला कर वात्सल्य के साथ दुलार लेती है। हनुमानजी अपने जीवन में कृतकृत्यता का बोध तब करते हैं जब सीताजी उन्हें एक पुत्र की तरह व्यवहार करती है। सीताजी भक्ति भी है, शांति भी हैं और लक्ष्मी भी है। विभिन्न धर्मग्रंथों में उन्हें अलग-अलग स्वरूपों में व्यक्त किया गया है। हम सब भी अपने जीवन में हनुमान की तरह भक्ति, शांति और लक्ष्मी को प्राप्त करना चाहते हैं लेकिन इनमें हमारा देहाभिमान सबसे बड़ी बाधा है। देहाभिमान उस सौ योजन समुद्र की तरह है जिसे हनुमानजी ने पार किया था। हम देहाभिमान से मुक्त होकर ही इन सबको प्राप्त कर सकते हैं।