जीवन का अर्थ और उद्देश्य

लेख  – प्रो. डी.के. शर्मा, पत्रकार रतलाम

आजकल सामाजिक और पारिवारिक जीवन में हो रही घटनाएं बहुत उद्वेलित करती हैं। जागरूक – संवेदनशील व्यक्ति इन अवांछनीय घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अवांछनीय घटनाएं जीवन के उद्देश्य के प्रति सोचने विचारने के लिए बाध्य करती है। सफलता क्या हैं? सफलता का उद्देश्य क्या है? क्या हम उस बंदर की तरह हैं जो उस्तरे का सही उपयोग करना नहीं जानता, इसलिए वह अपना गला काट लेता है। ऐसे कई प्रश्न उपस्थित हैं जिन पर सभी को विचार करना चाहिए। समाज को संपूर्ण विघटन से बचाने के लिए इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढना आवश्यक है। विचार सभी को करना है, युवाओं को और अधिक।
समाज में हो रही घटनाएं प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को विचलित करती हैं। मन में एक चुभन की अनुभूति होती है जिसका समाधान दिखाई नहीं देता। रटे हुए फॉर्मूले पर आधारित तकनीकी ज्ञान जीवन की समस्याओं, उलझनों का समाधान नहीं सिखाता। बड़ी-बड़ी संस्थाओं से ऊंची-ऊंची डिग्रियां लेकर जब युवा निकलते हैं तब उनका सामना जीवन में ऐसी समस्याओं-उलझनों से होता है जिनका समाधान किसी संस्था में नहीं पढ़ाया गया। ऐसे युवा व्यक्तिगत आकांक्षाओं एवं अहम के बोझ तले दबे रहते हैं। बचपन से ही उन्हें सिखाया भी यही गया है- पैसा कमाओ और अधिक पैसा कमाओ। उन्हें कोई यह नहीं सिखाता कि धन से वस्तुएं खरीद सकते हैं, सुख नहीं, खुशी नहीं, प्रसन्नता नहीं।
समाज का सामाजिक परिदृश्य भी धन आधारित हो गया है। माता-पिता भी बच्चों से यही अपेक्षा करते हैं कि वे अधिक से अधिक धन कमायें; परिवार में भावनात्मक विषयों, समस्याओं पर बहुत कम बात होती है। जीवन में धर्म के महत्व के बारे में चर्चा बिल्कुल नहीं होती। अधिक से अधिक धन कमाने पर ही जोर दिया जाता है। धर्म और संस्कार जीवन दर्शन को गंभीरता प्रदान करते हैं; किन्तु वर्तमान शिक्षा से यह समझ में नहीं आता है कि धन ही सर्वोपरि नहीं है। धन से मन की शांति नहीं खरीदी जा सकती। धन से मकान बनाया जा सकता है, उसे शांति और आनंद से रहने लायक स्थान नहीं। धर्म और संस्कृति ही मकान को सुख और आनंद से रहने योग्य बनाते हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि माता-पिता बच्चों को संस्कारित करें, उन्हें धर्म का ज्ञान दें, इनका महत्व उन्हें समझाएं। उन्हें यह समझाये कि धन जीवन का उद्देश्य नहीं, धन केवल माध्यम है। आनंदमय जीवन आपसी समझ और त्याग से ही प्राप्त किया जा सकता है।
पहिले हम धन की अति लालसा के परिणाम का विश्लेषण करें। पत्नी की अतिधन लालसा ने अतुल के प्राण ले लिए। पत्नी को क्या मिला? क्या वह बचा हुआ जीवन समाज में आदर के साथ शांति से व्यतीत कर पाएगी? अमेरिका धन के लिए दुनिया का आदर्श बन गया है किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक पागल अमेरिका में हैं। वहां लोगों का जीवन एकाकी और नीरस हो गया है। धीरे-धीरे वहां संयुक्त परिवार की ओर लौटने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। अन्य पश्चिमी देशों में भी अकेलेपन के दुष्परिणाम दिखाई देने लगें हैं। बुजुर्गों की घर में देखरेख नहीं होती, उन्हें वृद्धाश्रम में पटक दिया जाता है। किसी को यह समझ में नहीं आता कि खाना और बिस्तर सुख शांति नहीं देते। सुख शांति तो केवल अपनों के प्यार से ही मिलते हैं। अपनों के साथ शांति से खाई दो रोटी बुढ़ापे में बड़ा सुकून देती हैं। शर्त यह है कि ये दो रोटी आदर और प्रेम से मिलना चाहिए।
धर्म और संस्कार सर्वोपरि है।धर्म और संस्कार धन कमाना नहीं सिखाते, किन्तु ये दोनों कम धन में शांति से रहना सिखाते हैं। अतिधन की लालसा मनुष्य को निरर्थक बना देती है। इसी से सन्यास की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। जैन धर्म में वैराग्य की बढ़ती प्रवृत्ति अतिधन की निरर्थकता का ही प्रतिफल है।
गंभीरता से विचार करें तो समझ में आता है कि सक्रिय-सार्थक जीवन के वर्ष बहुत अधिक नहीं होते। इन्हीं कुछ वर्षों में आपको जीवन को सार्थक बनाना है, उसका आनंद लेना है और जो व्यक्ति आपसे जुड़े हैं उन्हें भी सुखी करना है। विवाह के बाद आपके पास कुछ ही वर्ष होते हैं जिनका उपयोग आप आनंद से रहने के लिए कर सकते हैं। इसी सीमित समय में आपको ऐसी मधुर स्मृतियां सजोना है जिनके सहारे आप जीवन का उत्तरार्ध सुख से व्यतीत कर सकें। यदि इस महत्वपूर्ण समय में व्यक्ति ने कटुता समेटी तो जीवन का उत्तरार्ध बहुत विषमय होगा। यही सत्य माता-पिता को अपने बच्चों को सीखाना चाहिए, किन्तु यदि माता-पिता ही अनुचित शिक्षा देकर जीवन में विष घोल दें तब तो जीवन निरर्थक ही है। रिश्तों का आनंद ही जीवन को सार्थक बनाता है। रिश्तों को धन के लिए बलिदान करना देना मूर्खता की चरम सीमा है। व्यक्तिगत स्वार्थ जीवन में जहर घोल देता है।
कई बार देखने में आता है कि कोई स्वार्थ न हो वहां भी व्यक्तिगत अहंकार बात बिगाड़ देता है। विचारों में भिन्नता बहुत स्वाभाविक है, किन्तु इसे व्यक्तिगत मतभेद का कारण नहीं बनने देना चाहिए। मतभेद को हंसकर भी टाला जा सकता है। माता-पिता-बच्चों का रिश्ता जीवन का आधार होता है। इसके बाद पति-पत्नी के संबंध जीवन की आधारशीला होती है। इस आधार को अपने व्यवहार से सुकोमल अथवा कटु बनाया जा सकता है। इस रिश्ते में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता। एक-दुसरे के प्रति त्याग की भावना उसे संबल प्रदान करती है। जीवन के अमूल्य समय को सार्थकता से व्यतीत करने के बारे में सभी को विचार करना चाहिए। संभवतः ऐसी विचारशीलता से जीवन में दुर्घटनाएं रोकी जा सकेगी और जीवन को सार्थक बनाया जा सकेगा।