संत वाणी ने लेखन की दिशा कुछ समय के लिए परिवर्तित कर दी। कठिन किन्तु महत्वपुर्ण विषयों पर लिखने का साहस कर रहा हूं। मन में विचार आया मानव जीवन का उद्देश्य क्या? मनुष्य क्या पाना चाहते हैं? विचार करने पर समझ में आया कि सबको सुख की तलाश है। प्रत्येक मनुष्य सुखी होना चाहता है, सुखी रहना चाहता है। प्रश्न है कि सुख क्या है? और उसकी प्राप्ति का साधन क्या? कौन सा मार्ग हमें सुख तक पहुंचा सकता है, सुख की अनुभूति करवा सकता है? सुख के दो अक्षर आदिकाल से मनुष्य को आकर्षित किए हुए हैं। अपने अस्तित्व के प्रारंभ से ही मनुष्य सुख की तलाश में उलझा हुआ है। सुख के रूप भी अनेक – अनेक नहीं, अनगिनत हैं। प्रत्येक व्यक्ति का सुख भिन्न- जितने मनुष्य उतने सुख, उतने ही अलग-अलग उनको पाने के मार्ग। विद्वानों ने सुख को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया है।
सुख एक अनुभूति है। इसमें आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शांति इत्यादि का अनुभव होता है। सुख की अनुभूति मन से जुड़ी हुई है। बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती है। अन्दर के आत्मानुभव से, बिना किसी बाह्य साधन एवं अनुकूल वातावरण के भी, सुख की अनुभूति हो सकती है। नारद जी ने युधिष्ठिर को सुख की परिभाषा बताते हुए सबसे पहले ‘अर्थ’ की बात कही थी। उनके मतानुसार यदि मनुष्य के पास – धन-सम्पत्ति, अच्छा स्वास्थ्य, सुन्दर – मधुभाषिणी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र एवं धन प्रदान करने वाली विद्या हो तो वह सुखी हो सकता है।
आचार्य चाणक्य के अनुसार सुख का वास्तविक तात्पर्य आत्म संतुष्टि से है। सुखी होने के लिए केवल अपने आचरण में बदलाव करना होता है। उपलब्धियों से संतुष्टि, दुसरों का प्यार व सम्मान, संतोष-सुख देते हैं। कुछ व्यक्तियों के पास सभी सुख-सुविधा होने के उपरांत भी सुख का अनुभव नहीं करते- मन की शांति गहन सुख प्रदान करती है।
प्रसिद्ध उपभोगवादी दार्शनिक चार्वाक के अनुसार सुख वस्तुओं के उपभोग में है। उन्होंने सलाह दी – उधार लो, घी पियो। वर्तमान में पूरा विश्व ही चार्वाक का अनुयायी है। सभी देश और सभी व्यक्ति कर्ज लेकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर रहे हैं। सभी युगों में धन को सुख का सबसे बड़ा साधन माना गया है। धन संपदा अपने आप में सुख की अनुभूति प्रदान करती है।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक थॉमस हार्डी ने सुख परिभाषित करते हुए यह लिखा ‘सुख मानसिक अनुभूति है – परिस्थिति जन्य परिणाम नहीं‘। यह सुख कि सर्वोत्तम परिभाषा है।
विचार करें तो प्रत्येक व्यक्ति का सुख अलग-अलग होता है। संतों का सुख दुनिया से विरक्ति-तपस्या होता है। उनकी कामना मोक्ष प्राप्ति की होती है। सुख में भिन्नता के कारण व्यक्ति का अन्य लोगों से वैचारिक टकराव होता है। परन्तु एक बात निश्चित है- प्रत्येक व्यक्ति सुख पाना चाहता है। सुख की कामना सर्वमान्य है। सुख प्राप्ति की कामना – प्रयास करना सर्वथा उचित है। सभी दार्शनिक – विचारकों ने इसे मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार माना है। सुख की प्राप्ति के लिए वर्तमान के सुख का भोग करना चाहिए, न कि भविष्य की अनिश्चित सुख की आस करना। सुख की एक निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। कौन सी परिस्थिति, कौन सी वस्तु सभी मनुष्यों को सुख प्रदान करेगी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यद्यपि धन-संपदा को सुख का प्रमुख साधन माना गया है। देखने में यह भी आता है – संपत्तिवान दुःखी, गरीब सुखी। सुख सापेक्ष भी होता है। किसी को ईमानदारी सुख देती है, किसी को बईमानी। एक शराबी को शराब में सुख छलकता है।
बाल साहित्य में एक कथा पढ़ने को मिली। एक व्यक्ति नंगे पांव जा रहा था। उसके आसपास लोग जुते पहने जा रहे थे। वह बड़ा दुःखी हुआ और सोचा कि ये लोग कितने सुखी हैं, इनके पास जुते हैं; मैं कितना दुःखी हूं, मेरे पास जुते नहीं। उसके लिए सुख जुते में था। थोड़ा आगे चला तो उसने देखा कि एक बिना पांव का व्यक्ति घसिटता हुआ चला जा रहा था। उस अपाहिज को देखकर बिना जुते वाले व्यक्ति के ज्ञानचक्षु खुल गए। उसे भान हुआ कि मेरे पास जुते नहीं तो क्या, मेरे पास पैर तो हैं। सुख पांव में है, जुते में नहीं।
इस प्रकार के अनेक भ्रम मनुष्य को होते रहते हैं। वह एक वस्तु अथवा परिस्थिति में सुख तलाशता है किन्तु अगले क्षण उसे अनुभव होता है कि यह केवल मति-भ्रम था। ज्ञानी का सुख अलग, अज्ञानी का अलग; सुकरात का सुख अलग, सुअर का सुख अलग। एक भुखे व्यक्ति को सुखी रोटी में भी सुख मिलेगा, जबकि भरे पेट वाले को हलवा भी बेकार लगेगा। अरस्तु ने 400 पुस्तके लिखी थी फिर भी वह संतुष्ट नहीं रहा होगा; जड़भरत बिना कुछ लिखे-पढ़े बहुत सुखी थे। सुख की मात्रा का निश्चित मापदण्ड तय नहीं किया जा सकता; यह सापेक्ष होता है- प्यासे को एक गिलास पानी भी बहुत सुख देता है। जिसे प्यास नहीं उसको पानी की चाह नहीं।
मनुष्य अपने अस्तित्व की प्रारंभिक अवस्था से ही सुख की तलाश में है। जब वह जानवरों का शिकार कर पेट भरता था तब भी सुख अनुभव करता होगा। वर्तमान में सबकुछ है किन्तु मनुष्य सुखी नहीं। वह किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति के कारण दुःखी है। हम देखते हैं कि सुख-सुविधा के जितने अधिक साधन उपलब्ध हैं मनुष्य उतना ही दुःखी होता जा रहा है; असंतोष असीमित होता जा रहा है।
सुख एक अनुभूति है, मानसिक परिस्थिति है। आज के उपभोगवादी युग में लोग वस्तु में सुख ढूंढते हैं। यह भ्रम है। बड़े मकानवाला अधिक सुखी होता है क्या? अधिक धन से अधिक सुख खरीदा जा सकता है क्या? अधिकतर लोग इसी भ्रम में रहते हैं, परन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है। बाल साहित्य की एक और प्राचीन कथा याद आई। एक राजा बहुत बीमार हो गया। सभी उपचार असफल हो गए तब किसी ने राजा के बेटे को सलाह दी कि राज्य में जो सबसे सुखी व्यक्ति हो उसका एक वस्त्र लाकर तुम्हारे पिता को पहना दो उसके पुण्य से तुम्हारे पिता ठीक हो जाएंगे। राजकुमार भेष बदलकर राज्य में पूरी तरह सुखी व्यक्ति की तलाश करने लगा। उसको सभी व्यक्ति किसी न किसी समस्या से परेशान दिखे। भटकते-भटकते एक दिन घने जंगल में रात हो गई। राजकुमार अंधेरे में रात रूकने की जगह देखने लगा। उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। जब वह झोपड़ी के निकट पहुंचा तो उसने सुना कि एक व्यक्ति अंधेरे में ईश्वर को धन्यवाद दे रहा है। उसने ईश्वर को धन्यवाद देते हुआ कहा कि हे प्रभु ! मुझे पूरी तरह सुखी बनाने के लिए धन्यवाद। मुझे कोई दुःख नहीं यह आपकी कृपा है। राजकुमार ने सुना और सोचा कि अंततः पूरी तरह सुखी व्यक्ति मिल गया। उसने आवाज लगाकर उस व्यक्ति को बाहर बुलाया। अंधेरे में ही अपना परिचय देते हुए उसने कहा कि मेरे पिता, तुम्हारे राजा, बहुत बीमार हैं। उनके उपचार के लिए राज्य में सबसे सुखी व्यक्ति का वस्त्र चाहिए। तुमने अभी-अभी ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा कि तुम पूरी तरह सुखी हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया – हां मैं पूरी तरह सुखी हूं, मुझे कोई कष्ट नहीं। राजकुमार मन में बड़ा प्रसन्न हुआ और उस व्यक्ति से कहा कि तुम्हारा पहनने का वस्त्र मुझे दे दो ताकि मेरे पिता को पहनाकर उनका उपचार किया जा सके। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि मेरे पास तो वस्त्र ही नहीं, केवल एक लंगोटी लगाता हूं। राजकुमार ने आश्चर्य चकित होकर पूछा कि ‘तुमने अभी-अभी भगवान को धन्यवाद देते हुए कहा कि तुम पूरी तरह सुखी हो, तुम्हें कोई कष्ट नहीं। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि हां मैं पूरी तरह सुखी हूं। सुबह जंगल से लकड़ी काटकर बेच आता हूं और जो मिलता है उससे अपना पेट भर लेता हूं। इसके अतिरिक्त मेरी कोई आवश्यकता नहीं। राजकुमार के ज्ञानचक्षु खुल गए। उसने सोचा कि वह महल में रहकर दुःखी और यह व्यक्ति बिना कपड़ों के भी सुखी। यह लघु कथा प्रमाणित करती है कि सुख एक मनस्थिति है। धन-संपदा, वस्तुओं से सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता।
आधुनिक भोगवादी विश्व के लिए यह लघु कथा बहुत शिक्षाप्रद है। वर्तमान में धन-संपत्ति को ही सुख का पर्याय समझा जाता है। इस दृष्टिकोण से अमेरिका के लोग सबसे अधिक सुखी होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार सबसे अधिक पागल अमेरिका में हैं। पश्चिमी देशों में सबसे अधिक विवाह विच्छेद होते हैं। स्पष्ट है कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता। धन मनुष्य के जीवन को आरामदायक बनाता है, मनुष्य को सुखी नहीं कर सकता।
संभवतः भावनात्मक संतुष्टी सर्वोत्तम सुख प्रदान करती है। मन सुखी नहीं तो सब सुख निरर्थक। भावनात्मक सुख जीवन में पारिवारिक सामंजस्य से सबसे अधिक प्राप्त होता है। सद्भावनापूर्ण सामाजिक सामंजस्य भी सुख प्रदान करता है। मन की निर्लिप्तता अद्भुत सुख प्रदान करती है। स्वयं की आत्मा पर ध्यान केन्द्रीत करने से अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है। यद्यपि आत्मानुभव बहुत कठिन किन्तु सर्वोत्तम है। अन्य से निर्लिप्त हो, स्वयं में केन्द्रीत हो आत्मानुभव का सर्वोत्तम मार्ग प्रतीत होता है। इसके लिए स्वयं के सांसारिक कर्तव्य का त्याग करना आवश्यक नहीं। मनुष्य को दो स्तर पर जीने की आदत डालना चाहिए। परिवार – समाज के लिए और अपने स्वयं के लिए। यह केवल मानसिक अनुभूति से प्राप्त किया जा सकता है। कर्तव्य का त्याग सुख नहीं देता, कर्तव्य का निर्वाह अद्भुत सुख प्रदान करता है। भगवान कृष्ण का कर्मयोग यही शिक्षा प्रदान करता है।