जातिगत जनगणना अनुचित – देश हित में नहीं


– प्रो. डी.के. शर्मा
जातिगत जनगणना की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है। राहुल गांधी जातिगत जनगणना की मांग बार-बार कर रहे हैं। कुछ अन्य नेता भी जातिगत जनगणना की मांग करने लगे हैं। बिहार में दो वर्ष पूर्व जातिगत जनगणना करवायी गई थी। जातिगत जनगणना का प्रारंभ अंग्रेज सरकार ने किया था। जातिगत जनगणना का विवरण भी लिखेंगे, किन्तु इस आलेख का उद्देश्य जातिगत जनगणना के औचित्य पर विचार करना है। जातिगत जनगणना के उपलब्ध इतिहास और विवरण के अनुसार-
भारत में वर्ष 1872 में ब्रिटिश हुकूमत ने पहली बार जनगणना की शुरुआत की थी। 1872 से लेकर 1931 तक जितनी जनगणना हुई, उसमें जातिवार आंकड़े भी दर्ज किए गए। आजादी के बाद 1951 में जब पहली जनगणना हुई तो इसमें जातिगत आंकड़ों को सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तक सीमित कर दिया गया।
इसके बाद वर्ष 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 और 2011 में जनगणना हुई, उसमें भी सरकार ने जातिगत जनगणना से दूरी बनाए रखी। वर्ष 2011 में जो आखिरी जनगणना हुई थी उसमें जातिगत आंकड़े भी दर्ज किये गए थे लेकिन यह डाटा सार्वजनिक नहीं किया गया। वर्ष 2021 में जनगणना होनी थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते इसे टाल दिया गया। पिछले 150 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ जब समय पर जनगणना नहीं हो पाई। अब कोरोना महामारी समाप्त हो चुकी है, लेकिन अब तक सरकार जनगणना को लेकर फैसला नहीं ले पाई है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 में जनगणना से जुड़ा प्रावधान है, लेकिन इसमें समय सीमा निश्चित नहीं है। जातिगत जनगणना के बारे में स्पष्ट कुछ नहीं लिखा है। सेंसस ऑफ इंडिया एक्ट 1948 में भी जनगणना की अवधि या अंतराल पर कोई निश्चित उल्लेख नहीं है। वर्ष 1872 में जब ब्रिटिश सरकार ने पहली बार जनगणना कराई थी तब से प्रत्येक 10 वर्ष के बाद या हर दशक की शुरुआत में जनगणना होती रही। दुनिया के अधिकतर देशों में 10 वर्ष के अंतराल पर ही जनगणना होती है। ऑस्ट्रेलिया जैसे कुछ देश ऐसे भी हैं, जहां प्रत्येक 5 वर्ष के अंतराल पर जनगणना होती है। वर्ष 2021 में जनगणना नहीं हुई ऐसे में देश की कुल आबादी कितनी है, इसका वास्तविक आंकड़ा उपलब्ध नहीं। कुछ महीने पहले ही संयुक्त राष्ट्र ने कहा था कि भारत इस वर्ष के आखिरी तक जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा। UN पॉपुलेशन फंड ने अनुमान लगाया था कि भारत की कुल जनसंख्या 142.8 करोड़ के आसपास है। कुछ समय पूर्व जातिगत जनगणना करवाई थी किन्तु उसका कुछ विशेष लाभ नहीं हुआ।
1951 में अंतिम बार जातिगत जनगणना हुई थी। इसके बाद हुई जनगणना में जातिगत जनगणना कभी नहीं की गई। आजकल जातिगत जनगणना की मांग बहुत जोर-शोर से उठाई जा रही है। राहुल गांधी प्रमुखता से जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। वे यह गिनती भी कर रहे हैं कि सरकारी अधिकारियों में किस-किस जाति के कितने अधिकारी हैं। उनके अपने राजनैतिक हित हैं वे समाज को विभाजित कर अपना हित साधना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य ये विवैचना करना है कि क्या देश के नागरिकों को जाति के नाम पर विभाजित करना देश हित में हैं? अंग्रेज देश को धर्म के नाम पर विभाजित करके गए उस समय के सत्ता लौलुप नेता उनकी चाल में फंस गए और देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया। आज के सत्ता स्वार्थी नेता देश के नागरिकों को जाति के आधार पर बांटकर किसी भी तरह सत्ता पाना चाहते हैं। राहुल गांधी इनमें सबसे आगे हैं। वे प्रधानमंत्री पद अपने परिवार की बपौती समझते हैं। किसी एक परिवार का सत्ता पर वंशानुगत अधिकार प्रजातंत्र के मूल सिद्धांत के विरूद्ध है। लेकिन राहुल गांधी ने बचपन से ही देश की सत्ता पर अपने परिवार का अधिकार देखा है। इसीलिए वे प्रधानमंत्री पद पर स्वयं का अधिकार समझते हैं, न मिलने पर छटपटा रहे हैं।
प्रजातंत्र की सफलता देश के नागरिकों पर निर्भर करती है। प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है कि किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार का सत्ता पर का स्थायी अधिकार नहीं हो। प्रजातंत्र की सबसे अच्छी व्याख्या अमेरिका के प्रसिद्ध राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने की है। उनके अनुसार प्रजातंत्र नागरिकों का, नागरिकों के लिए, नागरिकों द्वारा चलाए जाने वाली शासन पद्धति है। शासन जन हित में हो परिवार – व्यक्ति के हित में नहीं यह विचार नया नहीं है। ग्रीक दार्शनिक विचारक प्लेटो (375 ईसा पूर्व) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में लिखा है कि ‘शासक ऐसा होना चाहिए जिसका परिवार न हो।’ इससे शासक केवल देश हित के कार्य करेगा। इसी कारण प्लेटो ने माना कि एक निःस्वार्थ व्यक्ति ही उचित निष्पक्ष शासन कर सकेगा।
भारत की वर्तमान स्थिति बहुत चिंतनीय है। विभाजनकारी विचार प्रमुखता से आगे बढ़ाए जा रहे हैं। देशवासियों को धर्म एवं जाति के नाम पर बांटने का प्रयास एक नहीं अनेक व्यक्ति कर रहे हैं। वे केवल सत्ता प्राप्ति के लिए नागरिकों को जाति-धर्म के नाम पर विभाजित करना चाहते हैं। वे अंग्रेजों के सिद्धांत ‘बांटो और राज करो’ का ही पालन कर रहे हैं। दुर्भाग्य से भारत के अधिकतर राजनैतिक दल एक व्यक्ति – परिवार द्वारा चलाए जा रहे हैं। यह प्रजातंत्र के मूल सिंद्धात के ही विरूद्ध है; देश हित में तो बिल्कुल ही नहीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ता पर अधिकतर समय कब्जा राहुल गांधी के परिवार का ही रहा है। इस कारण वे सत्ता पर अपना अधिकार समझते हैं।
समय तेजी से बदल रहा है। वर्तमान में विकास की गति में भारत विश्व में सबसे आगे है। जाति एवं धर्म की बात करके देश के नागरिकों की मानसिकता विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है। यह समय लोगों को जाति – धर्म के नाम पर बांटने का नहीं। भारत दुश्मन देशों से घिरा हुआ है। चीन भारत का कट्टर दुश्मन है। पाकिस्तान-बंग्लादेश धर्मांध है। पाकिस्तान में बैठे आंतकी भारत के विरूद्ध जो कुछ करते हैं वह सब जानते हैं और हम भुगत रहे हैं। ऐसे खतरों के बीच में हमें सुरक्षित रहना है और विकास भी करना है। यह तभी संभव है, जब देश में एकता हो। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। राहुल गांधी का चाइना प्रेम सब जानते हैं। स्वयं मुसलमान होने के कारण पाकिस्तान के प्रति भी उनके मन में सद्भावना है।
अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी सम्प्रदायवाद के भरोसे ही चलती है। यूपी के मुस्लिम गुंडे और उनके लोग ही उसका जनाधार है। जातिवाद के नाम पर यादव और मुस्लिमों को एक कर सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं। सबको पता है कि उनके राज में हिन्दुओं का जीवन कितना असुरक्षित और कठिन था।
प्रजातंत्र का मूलमंत्र सबकी सुरक्षा और समानता है। जाति में लोगों को विभाजित करके देश को विभाजित करने का प्रयास है। दुर्भाग्य से भारत में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा वाले राहुल गांधी जैसे लोग देश- समाज को जाति के नाम पर बांटकर खुद सत्ता की मलाई खाना चाहते हैं। देश मजबूत रहे – कमजोर रहे इससे उनको कुछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्ति देश के बारे में नहीं सोचते उनका उद्देश्य स्वयं की स्वार्थपूर्ति है।
हमारा सुझाव है कि एक कानून बनाकर देश में सभी जातियों को समाप्त कर देना चाहिए। इससे अधिकतर समस्याओं का समाधान हो जाएगा।