बंगाल विस्फोटक, राष्ट्रपति शासन लगाना आवश्यक – प्रो. डी.के. शर्मा

भारत में संघीय शासन व्यवस्था है। देश राज्यों में बंटा हुआ है और केन्द्र में एक सरकार है जिसका उत्तरदायित्व देश को सुरक्षित और एक-जूट रखने का है। राज्य की सरकार व्यवस्थित और सुरक्षित चले इसका ध्यान रखने का उत्तरदायित्व भी केन्द्र सरकार का है। जब भी किसी राज्य में सरकार व्यवस्थित न चले, कानून का पालन न हो और नागरिकों की सुरक्षा न हो पा रही हो, तब संविधान में राज्य सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार केन्द्र सरकार को दिया गया है। प्रत्येक राज्य सरकार कानून के अनुसार चले और राज्य में सुरक्षा और शांति का वातावरण हो, यह देखने का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार का भी है। यदि किसी राज्य में अराजकता की स्थिति बन गई हो और राज्य अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा न कर पा रहा हो, तो राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया जाना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद – 356 ने यह उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार को दिया है। पश्चिमी बंगाल में स्थिति बहुत खतरनाक है, सबकुछ अस्त-व्यस्त है। बहुसंख्यक नागरिकों का जीवन सुरक्षित नहीं है। महिलाओं की अस्मिता भी खतरे में हैं। राज्य सरकार पूरी तरह एकपक्षीय हो गई है।
वर्तमान में बंगाल में कानून व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। आम नागरिकों का जीवन बुरी तरह खतरे में हैं। बहुसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहे हैं। उनका जीवन खतरे में हैं। महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है। यह सब करने के लिए एक वर्ग विशेष को मुख्यमंत्री का संरक्षण और प्रोत्साहन मिल रहा है। इसी वर्ग विशेष के वोट से बहुमत प्राप्त कर ममता बनर्जी सत्ता में बनी हुई है। अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ जो निर्दयता हुई उससे सभी अवगत हैं। ममता बनर्जी का शासन, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और निर्दयता का प्रतीक हो गया है। ममता बड़ी बेशर्मी से इस रास्ते पर चल रही है। वास्तव में बंगाल में पूरी तरह अराजकता व्याप्त है। कानून व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। बंगाल में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। आमजन के जीवन की सुरक्षा करने में सरकार पूरी तरह असफल हो चुकी है। कानून व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। वास्तव में बंगाल में स्थिति बहुत खतरनाक है। न जीवन सुरक्षित है, न महिलाओं की अस्मिता। बंगाल बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए नरक बन चुका है। स्थिति बहुत ही खतरनाक है, इसे नियंत्रित करने की जवाबदारी केन्द्र सरकार की है। जब कोई राज्य सरकार कानून के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करने में असफल हो जाए तब केन्द्र सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। यह केन्द्र का संवैधानिक उत्तर दायित्व है, किन्तु केन्द्र सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। इसका कारण समझपाना बहुत कठिन है। इसके विश्लेषण का प्रयास करते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ वर्षों तक सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकार रही। धीर-धीरे अन्य दल की सरकार भी राज्यों में बनने लगी, जबकि केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही। कांग्रेस राज्यों में अपने विरोधियों की सरकार सहन न कर पाई। नेहरू और इंदिरा गांधी ने विरोधियों की राज्य सरकार को जब चाहा भंग किया। जवाहर लाल नेहरू ने 7 बार राज्यों की सरकार को भंग किया था। उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने राज्य सरकार को भंग करने की केन्द्र सरकार को प्राप्त शक्ति का बहुत खुलकर उपयोग किया। उन्होंने 51 बार राज्य की सरकारों को भंग किया। इनमें अधिकतर बार भाजपा, तत्कालीन जनसंघ अथवा संविद सरकारें भंग की गई। स्पष्ट है कि इंदिरा गांधी ने खुलकर राज्यों में विरोधियों की सरकार को भंग किया। जब जनसंघ, बाद में भाजपा, अन्य सहयोगी दलों के साथ सत्ता में आने लगी तब उन्होंने कहा कि वे उनकी केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को भंग नहीं करेगी। स्पष्ट रूप से वचन दिया कि वे केन्द्र में सत्ता में आने पर संविधान के प्रावधान का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे। जब से केन्द्र में एनडीए सरकार बनी उन्होंने इस वचन का पालन किया है। नरेन्द्र मोदी ने भी इस वचन को निभाया है यह उचित किया या नहीं। इसका विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
संविधान का अनुच्छेद 356 केन्द्र सरकार को किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति उस अवस्था में देता है जब राज्य का संवैधानिकतंत्र पूरी तरह विफल हो गया हो। यह अनुच्छेद एक साधन है, जो केन्द्र सरकार को किसी नागरिक अशांति, असुरक्षा से निपटने में विफल राज्य सरकार को हटाने का अधिकार प्रदान करता है। देश के सभी नागरिकों की सुरक्षा का अंतिम उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार का ही है।
पश्चिमी बंगाल में स्थिति बहुत खतरनाक है। बहुसंख्यक हिन्दुओं का जीवन पूरी तरह असुरक्षित है। महिलाओं की अस्मिता की चिंता किसी को नहीं। आये दिन ऐसे प्रकरण सामने आते ही रहते हैं। कितना दुर्भाग्य है कि एक महिला के राज्य में महिलाएं सुरक्षित नहीं है। भ्रष्टाचार चरम पर है। ममता बनर्जी की सरकार यह सब होने ही नहीं दे रही है बल्कि उसके संरक्षण में हो रहा है। कानून व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो गई है। स्थिति विस्फोटक है। ऐसी विकट-खतरनाक स्थिति के प्रति केन्द्र सरकार का मूकदर्शक बने रहना बहुत ही अनुचित है।
इतने सब कारण राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए काफी है किन्तु केन्द्र सरकार ध्यान नहीं दे रही। कारण समझ में नहीं आता। वहां के राज्यपाल कई बार वर्तमान अव्यवस्था के प्रति राज्य सरकार को अपनी नाराजगी से अवगत करा चुके हैं। वे केन्द्र सरकार को भी अपनी रिपोर्ट भेजते रहते हैं, किन्तु केन्द्र सरकार ध्यान नहीं दे रही। पश्चिम बंगाल के उच्च न्यायालय ने भी कई बार पश्चिम बंगाल की कानून की अव्यवस्था पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है। हस्तक्षेप भी किया है। महिला डॉक्टर के प्रकरण को भी राज्य के उच्च न्यायालय ने सीबीआई को सौंपा है। उच्चतम न्यायालय ने भी स्वतः संज्ञान लिया है। किन्तु न्यायालयों की अपनी वैधानिक सीमाएं हैं। वास्तविक कार्यवाही तो केन्द्र सरकार को करना चाहिए। ऐसा न करके केन्द्र सरकार अपने संवैधानिक कर्तव्य को भूल रही है। पश्चिमी बंगाल पर राष्ट्रपति शासन लगाया जाना प्रत्येक दृष्टि से उचित ही नहीं, आवश्यक भी है। बंगाल के नागरिकों को असहाय-असुरक्षित छोड़कर केन्द्र सरकार मानवीय दृष्टि से भी अपने कर्तव्य को भूल रही है। समझ में नहीं आता कि केन्द्र सरकार जानबुझकर बंगाल में हो रही मानवीय त्रासदी से आंखें क्यों फेर रही है? अब तो अति हो गई, भारत सरकार जाग जाओ, बंगाल के नागरिकों का जीवन बचाने के लिए बंगाल में राष्ट्रपति शासन तुरंत लगा दो।