– प्रो. डी.के. शर्मा
बदल गया सावन
अब सबकुछ
बदला – बदला सा है,
ना झुलों का आकर्षण
ना सुंदरियों की आवाजाही.
पहले जब सावन आता था
जगह-जगह झूले डलते थे,
सजधज कर यौवन आता था
रहती थी प्रतिक्षा उत्सव की,
युवक डोलते रहते थे
एक झलक पाने को प्रिय की.
अब तो ना झूले डलते हैं
ना सुंदरियों का आकर्षण.
अब ना प्रतिक्षा प्राण प्रिये की
जब चाहो मिलो कहीं भी.
अब तो सबकुछ खुला खुला सा
अब न डुपटे का आवरण,
अम्मा-चाची भी अब
बिना डुपटा घुम रही है,
युवती तो युवती है लेकिन
दादी-चाची भी अब भ्रम में,
अब न रहा आकर्षण कुछ भी.
पहले शर्माती थी युवती
अब जिम्मेवारी बदल गई है,
अब शर्माये युवक बिचारे
दादा भी न देख सके,
अब न रहा आकर्षण कुछ भी
सबकुछ खुला –खुला सा है.
अब देती है खुला निमंत्रण
हो हिम्मत, स्वीकार करो
अब न रहा आकर्षण कुछ भी
सकुचाते पुरूष रह गए
अब न रहा पहिले सा सावन
सब कुछ बदला-बदला सा है.