प्रजातंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका का महत्व समान होता है। इसलिए प्रजातंत्र में दोनों का होना आवश्यक है। उन्हें अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए समझदार-गंभीर होना चाहिए। विपक्ष को देश के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। प्रजातंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के बीच समझदार संबंध होना आवश्यक है। दोनों के मन में देशहित सर्वोपरि होना चाहिए। आवश्यक बहुतमत वाला सत्तापक्ष सदैव अपनी मनमानी करना चाहता है। वहीं विपक्ष का कर्तव्य सत्तापक्ष को मनमानी करने से रोकना है। दोनों की खींच-तान चलती रहती है और चलती रहना भी चाहिए। जब देश हित की बात हो तो दोनों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए। विरोधी पक्ष का सत्ता पक्ष का समर्थन करने का एक बहुत अच्छा उदाहरण ध्यान में आता है। जब बांग्लादेश युद्ध हुआ तब विरोधी दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बिना शर्त इंदिरा गांधी को समर्थन दिया। जब नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने विरोधी पक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाकर संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजा। एक प्रजातांत्रिक देश में प्रजातंत्र की सफलता सत्ता पक्ष और विरोधी पक्ष के बीच उचित विरोध, सहयोग- सामंजस्य पर निर्भर करती है। दुर्भाग्य से वर्तमान समय में सामंजस्य – सद्भावना का पूरी तरह अभाव है। इसके कई कारण हैं। विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
सबसे प्रमुख कारण देश में अधिकतर राजनैतिक दलों की बनावट है। भारत के अधिकतर दल एक व्यक्ति या परिवार द्वारा संचालित होते हैं। साम्यवादी दल भी लम्बे समय से एक ही व्यक्ति द्वारा नियंत्रित है। जो कुर्सी पर बैठ गया वह कभी हटना नहीं चाहता। इस कारण जब भी सत्ता छीनती है तो राजनीति वाले व्यक्ति तिलमिला उठते हैं। जिस तरह एक गुंडा गैंग का सरदार किसी अन्य को आगे नहीं आने देता उसी तरह भारत के राजनैतिक दल हैं। एक मात्र भाजपा ही जनाधार वाला दल है जिस पर किसी एक व्यक्ति का सदैव अधिकार नहीं रहता। इसलिए जब केन्द्र और राज्यों में भाजपा सत्ता में आई तो सभी परिवारवादी नेता तिलमिला उठे। इन राजनीतिक व्यापारियों का किसी सिद्धांत से कुछ लेना देना नहीं, उन्हें तो अपने लिए सत्ता चाहिए किसी भी तरह। ज्ञात है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने बड़े-बड़े गुंड्डों को टिकिट देकर उन्हें संसद में भेजा था, इसी कारण उनके समय जातिय दंगे होते थे। लोगों को लड़ाकर सत्ता में बने रहना ही उनका उद्देश्य रहा है।
राहुल गांधी – गांधी परिवार, इसलिए मोदी से बहुत खफा है क्योंकि वे प्रधानमंत्री पद को अपनी बपौती (जागीर) समझते हैं। उनकी तिलमिलाहट इतनी अधिक है कि अपने व्यवहार में प्रधानमंत्री पद के लिए सामान्य शिष्टाचार भी भूल जाते हैं। परन्तु अब अंगूर खट्टे हो गए हैं। अखिलेश की सत्ता भी चली गई इसलिए इतनी बौखलाहट। वे उनका और उनके लाल टोपीवाले गुंड्डों का राज खत्म होना पचा नहीं पा रहे। ममता बनर्जी सत्ता में बने रहने के लिए समाज में साम्प्रदायिक जहर घोल रही हैं। यह देश के लिए बहुत हानिकारक – खतरनाक है। परन्तु ममता को इससे क्या? उन्हें तो सत्ता में बने रहना है, किसी भी तरह। आप की क्या बात करें? कट्टर ईमानदार अरविन्द केजरीवाल की सरकार के सभी महत्वपूर्ण मंत्री जेल में हैं। बेशर्म भ्रष्टाचार भारतीय राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है। बिहार के लालू की महिमा सभी जानते हैं। गाय के घास की रकम हड़पने के कारण सजा होने के बाद भी चेहरे पर शिकन नहीं – शर्म नहीं। भारत के लोग बहुत भोले हैं; ऐसे नेताओं के भक्तों की अभी भी कोई कमी नहीं।
प्रजातंत्र में विपक्ष को बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। संसद के सत्र का उन्हें पूरा उपयोग कर सरकार की आलोचना करना चाहिए। सरकार द्वारा प्रस्तावित विषयों का गंभीर अध्ययन करके तथ्य आधारित आलोचना करनी चाहिए। उन्हें अपने संसद सदस्यों की विषयवार कमिटी बनाना चाहिए। प्रत्येक कमिटी एक या दो विषय का गंभीरता से अध्ययन करे और सरकार की तथ्य परख आलोचना करे। ऐसा करने से सरकार की उचित-गंभीर आलोचना की जा सकती है। वर्तमान में विरोधी दल जिस तरह का व्यवहार संसद में करते हैं उससे अच्छा संदेश नहीं जाता। कोई भी विरोधी सदस्य किसी भी विषय पर तथ्य परख आलोचना सरकार की नहीं करता। वे व्यक्तिगत आक्षेप और छींटाकशी से सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं। इससे विरोधियों की उचित छबि नागरिकों में नहीं बनती। आज नागरिक चाहते हैं कि संसद में गंभीर बहस हो। अब अधिकतर नागरिक राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं। संसद में क्या हो रहा है इसके प्रति सजग हैं। वे चाहते हैं कि विरोधी संसद सदस्य बुद्धि कौशल द्वारा सरकार की आलोचना करें। यद्यपि वर्तमान में अधिकतर देशवासी भाजपा सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली से संतुष्ट हैं किन्तु बहुत बड़ी संख्या में ऐसे भी हैं जो भाजपा की नीतियों में परिवर्तन चाहते हैं। युवकों में बहुत असंतोष है। विरोधी पक्ष को उनकी आवाज बनना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा। राहुल गांधी जैसे नेता देश के नागरिकों को मुर्ख समझते हैं। राहुल सोचते हैं कि वे जो कहेंगे नागरिक मान लेंगे। आज गांव में चाय की दुकान पर भी राजनीति पर चर्चा और बहस होती है। परन्तु राहुल ये नहीं समझते, कोई उन्हें बताने वाला भी नहीं, वे किसी की सुनते भी नहीं। वे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से भी कटे हुए हैं। कांग्रेस के कुछ अन्य नेता भी निरर्थक आलोचना करते हैं। इससे कांग्रेस की छबि बिगड़ती ही है। केवल आतंकियों को सम्मान देने से बात नहीं बनेगी।
बजट सरकार का घोषणा पत्र होता है। बजट पर चर्चा विरोधियों के लिए सरकार की कमियों को उजागर करके उनकी आलोचना करने का बहुत अच्छा अवसर होता है। यह अवसर प्रतिवर्ष केवल एक बार आता है। इसका उचित उपयोग विरोधी दलों को करना चाहिए। इसके लिए विषयवार अपने दल के सदस्यों की समिति बनाना चाहिए। प्रत्येक समिति को एक या दो विषय का अध्ययन करके सरकार की आलोचना करने का उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए। प्रमुख प्रजातांत्रिक देशों में ऐसा ही होता है।
संसद में सरकार की उचित-गंभीर आलोचना करना देश के प्रति विरोधी दलों का उत्तरदायित्व है। इंग्लैण्ड में तो शेडो प्रधानमंत्री भी होता है। इनका उत्तरदायित्व अपने मतदाताओं के प्रति भी है जिन्होंने उन्हें संसद में काम करने के लिए चुना है, संसद के बहिष्कार के लिए नहीं। किन्तु भारत के विरोधी दल केवल बहिष्कार करना जानते हैं।
बहिष्कार का भी विश्लेष्ण करें। इससे देश को कितनी आर्थिक हानि होती है इसकी जानकारी देना जरूरी। संसद की प्रत्येक कार्यवाही पर करीब हर मिनट में ढाई लाख (2.5 लाख) रुपये खर्च का अनुमान है। आसान भाषा में समझें तो एक घंटे में डेढ़ करोड़ रुपये (1.5 करोड़) खर्च हो जाते हैं। संसद सत्र के 7 घंटों में एक घंटा लंच को हटाकर बचते हैं 6 घंटे। इन 6 घंटों में दोनों सदनों में केवल विरोध, हल्ला और शोर होता है, जिसके कारण हर मिनट में ढाई लाख रुपये बर्बाद हो रहे हैं। अनुमान लगाइए कि पिछले पांच वर्षों में बहिष्कार के कारण देश का कितना धन बर्बाद हुआ।
बहिष्कार से सरकार पर कोई दबाव नहीं बनता, बल्कि इससे सरकार का काम और आसान हो जाता है। साथ ही विरोधी दल की छबि नागरिकों में बिगड़ती है। दुर्भाग्य से इतनी छोटी सी बात राजनीति के माहिर – शातिर खिलाड़ियों को समझ नहीं आती। ऐसा लगता है कि ये लोग नागरिकों को मुर्ख समझते हैं। उनका मानना है कि वे जो कहेंगे लोग मान लेंगे। वर्तमान में ऐसा नहीं है। नागरिक सतर्क और जागरूक हैं। वे सत्ता पक्ष और विरोधी दोनों के कामों की समीक्षा करते हैं, प्रशंसा और आलोचना करते हैं।
पिछली संसद के कार्यकाल में विरोधी दलों ने संसद का अधिकतर बहिष्कार किया। वर्तमान कार्यकाल का भी प्रारंभ उन्होंने ऐसे ही किया है। यह बहुत अनुचित और देश विरोधी कार्य है। बहिष्कार करना उनके स्वयं के लिए भी लाभकारी नहीं। यह बात विरोधी दलों को समझना चाहिए। सरकार की गंभीर – तथ्य परख आलोचना करके देश की सेवा करना चाहिए। लाभ अपने आप मिलेगा।