इंदौर, । हम जीवन भर बहुत दौड़ते हैं, लेकिन कहीं से आराम, विराम और शांति नहीं मिलती। हमारी दौड़ सही थी, लेकिन दिशा गलत थी। हमारी तड़प सही है, लेकिन तलाश गलत है। प्रयत्न और प्रार्थना की भागीदारी होती है। बहुत से लोग प्रयत्न करते हैं, प्रार्थना नहीं करते। प्रार्थना कोई श्लोक या वेद की ऋचाएं नहीं, बल्कि अपने हृदय के उदगार होते हैं। प्रयत्न के साथ प्रार्थना भी जरूरी है। मन में जो भी आए, भगवान को सुना दें। भगवान अकेले ही रहते हैं आप उनसे बात करेंगें तो वे प्रसन्न ही होंगे। सुख में तो कहीं न कहीं हम अहंकारी हो जाते हैं, लेकिन दुख में परमात्मा ज्यादा याद आते हैं और ज्ञान भी मिलता है। प्रेम और भक्ति करने की कोई वजह नहीं होती। श्रद्धा को विश्वास में बदलना एक लम्बी यात्रा है। हम बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देंगे तो वृद्धावस्था में हमें भी बुरे दिन नहीं देखना पड़ेंगे। परमात्मा धन धर्म के लिए देते हैं, भोग के लिए नहीं।
ये प्रेरक विचार हैं प्रख्यात संत किरीट भाई के, जो उन्होंने आज साउथ तुकोगंज स्थित जाल सभागृह में तुलसी परिवार इंदौर द्वारा गुरू पूर्णिमा एवं उनके प्राकट्य महोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किए। कार्यक्रम का शुभारंभ गुरू वंदना के बाद तुलसी परिवार की ओर से श्रीमती मनोरमा प्रसाद, सुनील मालू, राजेश नेमा, संजय सोनी, मीतेश जोशी, जयप्रकाश भुराड़िया आदि ने दीप प्रज्ज्वलन कर किया। किरीट भाई के साथ उनके पुत्र शुकाचार्य भी पहली बार इंदौर आए थे। प्रारंभ में सुनीता पिल्लई, उमेश-राधिका नेमा, राजेश गुप्ता, सुनीत पोरवाल, मंजू टेकरीवाल एवं मुंबई से आई भावना बेन ने स्वागत किया। इस अवसर पर सैकड़ों भक्तों की मौजूदगी में भाईजी ने ठाकुरजी का गंगाजल एवं केशर स्नान कराते हुए विशिष्ट पूजन भी किया। देशभर से आए भक्तों ने कतारबद्ध होकर गुरू पूजन किया और दीक्षा भी प्राप्त की। जन्मोत्सव प्रसंग पर उन्हें साफा बांधकर स्मृति चिन्ह भेंटकर उनके शतायू एवं स्वस्थ जीवन की कामनाएं की गई। भक्तों ने जयघोष के बीच उनका जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया। इस अवसर पर कोरोना काल में किरीट भाई द्वारा रचित ‘रामामृतम’ के तीन खंडों का लोकार्पण तुलसी परिवार इंदौर के सुनील मालू, राजेश नेमा एवं मीतेश जोशी ने किया। संचालन संजय सोनी ने किया और आभार माना राजेश नेमा ने। करीब तीन घंटे चले इस समारोह में मालवा एवं म.प्र. के अलावा अन्य राज्यों के श्रद्धालु भी आए थे। मुंबई से आए लोगों ने उनका 60वां जन्मदिन उत्सव के रूप में मनाया। भाईजी ने भक्तों के प्रश्नों के उत्तर भी दिए और उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान भी किया।
अपने आशीर्वचन में किरीट भाई ने कहा कि परमात्मा ने दिन के साथ रात, सुख के साथ दुख और सफेद के साथ काला रंग भी बनाया है। मतलब यह कि सकारात्मक के साथ नकारात्मक चीजे भी हैं, लेकिन हमारा स्वभाव नकारत्मक बातों पर ध्यान देने का हो गया है। महत्व की बात यह नहीं है कि कितने घंटे बोले बल्कि यह है कि क्या बोले। ज्ञान आचरण में भी उतरना चाहिए। सोना जब तक तपाया नहीं जाता, कंचन नहीं बनता। मक्खन भी तपाए बिना घी में नहीं बदलता। आज के युवा अपनी पत्नी को विदेश यात्रा पर घुमाने ले जा सकते है, लेकिन वृद्ध माता-पिता के लिए उनके पास न समय है, न भाव। उनके पास जो कुछ है आपने ही दिया है। धन का उपभोग व्यसन और फैशन में करने से हम लक्ष्मी के अपराधी बन जाते हैं। दान देने से पैसा कम हो सकता है पर लक्ष्मी कम नहीं होती। स्मृति ग्रंथ में भी कहा गया है – अपनी नेक कमाई का 20 प्रतिशत किसी को भी नहीं दें, अपने पास ही रखें। मृत्यु के बाद बेटा हमारे पैसों से ही समाज को खाना खिलाएगा और भागवत भी बिठाएगा। हम जीते जी यह सब क्यों नहीं करें। लोग भक्तों को ताने मारते हैं कि रोज मंदिर जाने पर भी बीमार हो गए या इतनी तीर्थ यात्रा करने के बाद भी कारोबार में घाटा हो गया। भक्ति के मार्ग में अनेक चुनौतियां हैं। संत तुकाराम, मीराबाई, भक्त नरसिंह जैसे उदाहरण हम जानते हैं, जिन्हें अपने ही नाते-रिश्तेदारों से प्रताड़नाएं मिलीं। आपको भी मिलेगी, लेकिन उनकी परवाह किए बिना आपको अपने भजन और विश्वास को बढ़ाने का पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।
भाईजी ने कहा कि मंदिरों में कोई भी देवता बैठा हुआ नहीं, हमेशा सब खड़े हुए हैं। दुख की चर्चा करने से दुख फैलता है, जिंदा रहता है। दूसरों को अपने दुख की कहानी सुनाने के बजाय उसका कारण खोजे। डाक्टर भी पहले बीमारी का कारण खोजता है फिर उपचार करता है। दुख का सबसे बेहतर उपचार है दुख की विस्मृति। भगवान से भी यह न कहें कि मेरा दुख दूर करे, बल्कि यह कहें कि इस दुख से लड़ने की मेरी ताकत बढ़ा दें। भगवान के पास जिज्ञासु लोग भी जाते हैं। हमारे पास दो तरह की श्रद्धा है, एक प्रभावी और दूसरी स्वाभाविक। स्वाभाविक श्रद्धा टिकती नहीं, डांवाडोल बनी रहती है। परमात्मा कोई चीज निरर्थक नहीं करते।
उन्होंने कहा कि ज्ञान का प्रथम सौपान है – मैं नहीं जानता या मुझे पता नहीं। एक कहावत है कि भारतीय समाज को इसलिए नहीं सिखाया जा सकता कि उन्हें पहले से ही सब पता होता है। जहां मैं नहीं, मेरा नहीं वहां अहम निकल जाता है। यह निकला हुआ अहम ही ज्ञान को विवेक में बदलता है। अहंकार कहीं से भी आ सकता है। धन, पद, शक्ति और सुंदर पत्नी का अहंकार भी आ जाता है। हम गुरू से दीक्षा लेकर गले में जो कंठी पहनते हैं वह गलत दिशा में जाने से जीवन को रोकने का ब्रेक होती है। जैसे हाथी पर अंकुश लग जाता है, वैसे ही हमारी गलत वृत्तियों पर गुरू की दीक्षा लगाम लगाती है। भगवान को आर्तनाद से पुकारेंगे तो जल्दी सुनवाई होगी। प्रभु से यही प्रार्थना करना चाहिए कि हमारा आने वाला समय सुखद और आनंदमयी हो। हम सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया की भावना वाले लोग हैं। मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ कमाता है, उसका केवल 30 प्रतिशत ही खर्च करता है और 70 प्रतिशत छोड़कर जाता है। धन का उपयोग सदकर्म करने में ही सार्थक माना गया है।