“सहयोग का संकल्प (लघुकथा)”
कहते है कि मन में यदि कुछ कर गुजरने की ललक हो तो छोटी सी शुरुआत भी एक बड़ा परिवर्तन ला सकती है। दुर्गा भी इसी कार्य में संलग्न थी। हुआ यूँ कि दुर्गा ने अपने आसपास एक नवजात बच्चे को कई दिव्यांगताओं से ग्रस्त देखा। उसका हृदय दु:ख से भर गया। बच्चे के प्रति नियति के न्याय से उसे मन ही मन गहरा आघात लगा। ऐसी दर्दनाक स्थिति से और बच्चे सामना न करें इसके लिए उसने लोगों को जागरूक करने का संकल्प किया। उसकी एक मित्र गाइनाकोलोगीस्ट थी। दुर्गा ने उनसे सही जानकारी एकत्र करी और गाँव-गाँव जाकर अपनी वाणी से ही सहयोग की प्रक्रिया पूरी की। कई बार अच्छी सलाह अस्वीकार भी कर दी जाती है और कहीं-कहीं खुले दिल से उसका स्वागत भी होता है।
दुर्गा चाहती थी कि यदि वह किसी एक नवजात की भी रक्षा कर पाती है तो यह भी उसके उद्देश्य को सार्थक सिद्ध करने में सहयोगी बन सकेगा। कई बार सहयोग के लिए अर्थ और साधनों की भी जरूरत नहीं होती, केवल सहयोग के संकल्प से भी ऊंची उड़ान भरी जा सकती है। चूँकि गर्भावस्था एक कठिन समय है। यह 9 महीने भ्रूण के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें पोषण की भी अत्यधिक भूमिका है। हमारा आचार-विचार, खान-पान और उचित चिकित्सकीय सलाह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दुर्गा की एक और विशेषता यह भी थी कि वह बिना उम्मीद और अपेक्षाओं के कार्य करने को तत्पर रहती थी। वह कुछ समय कुछ बेहतर प्रयास को देना चाहती थी। जीवन अनेक विषमताओं का संगम है। हर किसी की अपनी सोच और अपने तरीके हो सकते है। बस कदम बढ़ाने की आवश्यकता है।
इस लघु कथा से यह शिक्षा मिलती है कि जीवन में कुछ अपने मन का अवश्य करें जिससे आप बेहतर महसूस का सकें। दुर्गा ने सहयोग का संकल्प बिना किसी स्वार्थ के केवल नवजात की सुरक्षा के ध्येय को लेकर किया। उसने प्रत्येक परिस्थिति के लिए स्वयं को तैयार कर रखा था। वह किसी भी प्रकार के अपेक्षित व्यवहार के लिए तैयार थी। अतः जब कुछ नवीन करें हर परिस्थिति के लिए स्वयं को तैयार करें।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)