साधु-संत का समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। वे समाज के आध्यात्मिक मार्गदर्शक होते हैं। हिन्दू धर्म और संस्कृति में साधु-संतों ने बहुत ही उपयोगी कार्य किया है। भारतीय साधु-संतों ने भारतीय संस्कृति के विकास और प्रचार-प्रसार का कार्य किया है। उन्होंने हिन्दूओं की आत्मा का लोक और परलोक में मार्गदर्शन किया है। हिन्दू संस्कृति के संरक्षण का कार्य भी साधु-संतों ने ही किया है। हिन्दू संस्कृति को स्थायित्व भी ऋषि-मुनियों, साधु-संतों के प्रयास और परिश्रम से मिला है। आदि शंकराचार्य द्वारा चार धाम का निर्माण हिन्दू-धर्म और भारतीय संस्कृति को स्थायित्व प्रदान करने का अद्भुत प्रयास रहा है। उस युग में भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म एक ही थे। तब कोई अन्य विधर्मी भारत में नहीं था। समय के साथ स्थितियां बदली। मुस्लिम आक्रांता भारत में आये और यहां अपना स्थायी घर बना लिया। अंग्रेज आये और चले गए किन्तु मुसलमानों ने भारत में अपना स्थायी अड्डा बना लिया। मुगल शासकों ने हिन्दू धर्म पर बहुत आघात किए। 500 रियासतों में बंटा भारत मुगल शासकों का प्रतिकार नहीं कर सका। शिवाजी और पेशवा ने मुस्लिम आक्रांताओं का कड़ा विरोध किया किन्तु उन्हें रोकने में सफलता नहीं मिल सकी। मुस्लिम आक्रांताओं के वंशजों ने भारत को अपार दुःख दिया, अंत में भारत टुकड़े-टुकड़े हो गया। वर्तमान भारत प्राचीन भारत का एक तिहाई भाग ही है। अभी भी भारत और हिन्दू संस्कृति बड़े खतरे में हैं। हिन्दू साधु-संतों को इसे बचाने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। उनकी सक्रियता केवल महाकुंभ तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए।
हम देखते हैं कि हिन्दू साधु संत धार्मिक आस्था और विचारधारा के आधार पर विभाजित हैं। सबके अलग-अलग खेमे हैं, अलग-अलग प्रतिबद्धताएं हैं। विचारधारा और व्यक्तिगत अंहकार भी विभाजन के कारण हैं। समान धर्मावलम्बी होने के बाद भी विचारों में बहुत भिन्नता है। इससे हिन्दू धर्म भी विभाजित होता है। जबकि हम देखते हैं कि अन्य धर्मावलम्बी धर्म के मामले में एक हैं। उनका उद्देश्य अपने धर्म को संगठित करना और उसका प्रचार-प्रसार करना होता है। वर्तमान में हिन्दूओं के संगठित होने की बहुत आवश्यकता है। हिन्दू समाज जात-पात के आधार पर बहुत विभाजित है और राजनैतिक विभाजन ने उनमें और अधिक जहर घोल दिया है।
वर्तमान में हिन्दूधर्म बहुत खतरे में है। मत-मतांतर विभाजन का बड़ा कारण है। मान्यताओं में भिन्नता भी विभाजन का एक प्रमुख कारण है। दुर्भाग्य से हिन्दू कभी भी धर्म के आधार पर संगठित नहीं रहे। इस विभाजन का लाभ मुसलमान आक्रांताओं ने उठाया। उदाहरण के लिए यदि जयचंद पृथ्वीराज का साथ देता तो कहानी कुछ और होती; मानसिंह अपने अहंम को त्यागकर राणाप्रताप के साथ होता तो राणाप्रताप नहीं हारते। भारत का इतिहास ही भिन्न होता। इस तरह के विभाजन को रोकने में धर्मगुरू प्रभावी और लाभकारी भूमिका निभा सकते थे। चाणक्य ही एक मात्र अपवाद थे जिन्होंने उनके शिष्य चंद्रगुप्त का सक्रिय और उचित मार्गदर्शन किया। वर्तमान में हिन्दू धर्म पर खतरे कई हैं। आधुनिकता के नाम पर हिन्दू अपने धर्म की बात करने से कतराते हैं। उचित धार्मिक शिक्षा का भी बहुत अभाव है। आधुनिकता और उदारता हिन्दूओं के लिए अभिशाप का काम कर रही है। हिन्दूओं को उचित और व्यवस्थित धार्मिक शिक्षा भी उपलब्ध नहीं है। हिन्दूओं की नयी पीढ़ी अपनी धार्मिक मान्यताओं से पूरी तरह अनभिज्ञ है। उन्हें धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती, जबकि अन्य धर्मों में बच्चों को व्यवस्थित तरीके से धार्मिक शिक्षा दी जाती है।
महत्वपूर्ण आवश्यकता हिन्दूओं को नियमित पूजा-पाठ करने के लिए प्रेरित करने की है। व्यवस्थित रूप से पूजा करने की शिक्षा भी हिन्दूओं को दी जानी चाहिए। युवाओं में इसका नितांत अभाव है। युवा माता-पिता भी अपने धर्म ज्ञान से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। यदि माता-पिता नियमित देव-आराधना करेंगे, तो उसका प्रभाव निश्चित ही उनके बच्चों पर पड़ेगा।
हिन्दू धर्म में धर्मप्राण प्रेरित करने के लिए साधू-संतों का मार्गदर्शन बहुत आवश्यक है अपने मठों-आश्रमों से निकलकर अधिक से अधिक हिन्दूओं को मार्गदर्शित करने की कृपा करें।
कुछ धर्म गुरूओं ने यह शुभकार्य प्रारंभ किया भी है। उनका अभिनंदन।