हम अपने जुते पहचान लेते हैं, आत्मा नहीं पहचान पाते – प्रो. डी.के. शर्मा

चातुर्मास चल रहा है। शहर में संतों के प्रवचन हो रहे हैं। लोग बड़ी संख्या में प्रवचन सुनने आ भी रहे हैं। सुनने का सौभाग्य मिला। इन प्रवचनों ने आत्मा को झकझोर दिया। संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये प्रवचन बिजली के शॉक जैसे होते हैं, चाबुक होते हैं आत्मा को जगाने के लिए। संवेदनशील श्रोताओं के लिए विचार करने के लिए इतना प्राप्त होता है कि मनन करने में बरसों लग जाए; आत्मसात करना दुनियादारी में डुबे हुए मनुष्य के लिए लगभग असंभव है। ऐसा अनुभव हुआ कि अधिकतर श्रोता दिखावे के लिए आते हैं। समाज में धार्मिक व्यक्ति की छबि बनी रहे यही उद्देश्य होता है। किन्तु संवेदनशील व्यक्तियों के लिए संतों के शब्दों के चाबुक की मार भुल पाना संभव नहीं होता। जो व्यक्ति संवेदनशील नहीं, वह वास्तविक अर्थ में जीवित भी नहीं। अधिकतर मनुष्य कलपुर्जे की तरह जीवित हैं। कभी यह नहीं सोचते कि जीवन का अर्थ क्या, उद्देश्य क्या? संत यही समझाने का प्रयास करते हैं। संतों की शिक्षा का अंश मात्र भी ग्रहण कर आत्मसात कर लिया तो जीवन धन्य हो जाएगा, किन्तु यह होता नहीं। मन में एक विचार आया कि जब प्रवचन सुनकर अथवा मंदिर में दर्शन कर हम बाहर निकलते हैं, तब हम जुतों के ढेर में से अपने जुते पहचान लेते हैं किन्तु हम अपनी आत्मा को नहीं पहचान पाते। आत्मा का स्वरूप क्या? उसके अस्तित्व का उद्देश्य क्या? हम यह नहीं समझते। हमारे संत हमें अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराने का प्रयास करते हैं। संत अपना जीवन त्याग – तपस्या को समर्पित कर हमारे लिए दैविक जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। विचार करें कि क्या हम संत वाणी से कुछ सीखते हैं अथवा प्रवचन स्थल से बाहर आने के बाद सब भुल जाते हैं।

दुनियादारी में धन, संपदा की भी आवश्यकता होती है। इसे नकारा नहीं जा सकता। पढ़ते आए हैं- भूखे भजन न होय गोपाला- अर्थ के बिना सब अनर्थ। गरीबी से बड़ा कोई अभिशाप नहीं। अतः काम करना, धन कमाना अनिवार्य है। संपन्न-सुखी जीवन जीने की आकांक्षा करना अनुचित नहीं। यह धन के बिना संभव नहीं। अतः धन कमाएं, बहुत कमाएं किन्तु उसके लिए अपनी आत्मा को न भुलें। आत्मा को गिरवी रख धन कमाना अनुचित है। जीवन की सार्थकता को न भुलें। साधु-संत यही याद दिलाने का प्रयास करते हैं। किन्तु हम हैं बहुत कठोर, चिकने घड़े की तरह, संत वाणी से प्रभावित नहीं होते। एक कान से सुना, दूसरे से निकाला। वास्तव में हममे से अधिकतर अपनी आत्मा की चिंता नहीं करते। हमें अपनी आत्मा की अनुभूति होती ही नहीं। संत हमें अपनी आत्मा के अस्तित्व और उसके उद्देश्य के प्रति जागरूक करने का प्रयास करते हैं। जो अपनी आत्मा को पहचान लेता हैं, वह धन्य हो जाता है, अन्यथा जुतों के ढेर में अपने जुते तो पहचान लेते हैं किन्तु शरीर में उपस्थित एकमात्र आत्मा का अनुभव नहीं करते। संत अपने शब्दों के चाबुक से हमें अपनी आत्मा का स्मरण कराने का प्रयास करते हैं। हमें संतों का सहयोग करना चाहिए। उनकी तपस्या सफल हो जाएगी और हमारा जीवन धन्य। संतों की वाणी को गंभीरता से लेना चाहिए- जीवन सार्थक हो जाएगा।

जिस व्यक्ति को आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति हो जाती है वह जीवन के वास्तविक अर्थ को पहचान लेता है, उसके जीवन का आत्मिक स्तर अलग श्रेणी का हो जाता है। दुनियादारी के क्रियाकलापों में व्यस्त होने के उपरांत भी वह अद्भुत आत्मीय आनंद की अनुभूति करता है। वह दुनिया में है भी और नहीं भी। उसके लिए प्रत्येक गतिविधि का अर्थ अन्य से भिन्न होता है। ऐसा नहीं कि वह अपने दुनियादारी के उत्तरदायित्व से विमुख हो जाता है। वह उनके प्रति भी सजग रहता है। वास्तव में वह दुनियादारी के प्रति कर्तव्य का निर्वाह अधिक सजगता और लगन के साथ करता है। ऐसा व्यक्ति अन्य से भिन्न नहीं होता अंतर केवल इतना होता है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति अधिक सजग रहता है। हम पढ़ते ही आए हैं- कर्तव्य का निर्वाह वास्तविक पूजा है। जिसने अपनी आत्मा को पहचान लिया, उसने जीवन के मर्म को समझ लिया, अन्यथा अर्थ का अनर्थ तो हममें से अधिकतर करते हैं। सजगता में सार्थकता है अन्यथा प्रवचन सुनने जाने वालों में से अधिकतर दिखावे के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर लौट आते हैं और बाहर अपने जुते ढूंढने में लग जाते हैं।

कभी हमने सोचा कि संत दुनियादारी का त्याग क्यों करते हैं। अधिकतर मानते हैं कि वे यह त्याग अपने स्वयं के लिए करते हैं, मोक्ष के लिए करते हैं। निश्चित ही यह भी एक उद्देश्य होता ही है किन्तु इसमें परमार्थ भी निहित होता है। विचार किया तो समझ में आया कि संत सबसे बड़े समाज सेवी होते हैं। संत हमें आत्मा के प्रदुषण से बचाते हैं; वे हमें उचित और अनुचित के प्रति सजग करते हैं। संत सबसे महत्वपूर्ण समाज सेवी होते हैं। वे हमें आत्मीय ज्ञान की अनुभूति करवाते हैं। जब आत्मीय ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो दुनिया की किसी अन्य उपलब्धि का महत्व नहीं रहता। ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की अनुभूति का स्तर अन्य से बहुत अलग हो जाता है। इसका शब्दों में विश्लेषण असंभव है। हम भी अपनी आत्मीय सजगता से उसका अनुभव कर सकते हैं। हम भी प्राप्त कर सकते हैं उस ईश्वरीय अनुभूति को जिसके लिए संत सबकुछ त्यागते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि हम संतवाणी को गंभीरता से सुने, उसके अर्थ और मर्म को समझने का प्रयास करें। हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा।