डांवाडोल भक्ति काम नहीं आएगी, दृढ़ता जरूरी -महामंडलेश्वर स्वामी प्रणवानंद सरस्वती

इंदौर, । आज का मानव तमाम व्यथाओं में डूबा हुआ है। भागवत केवल कथा नहीं, हम सबके जीवन की व्यथाओं को मिटाने की चाबी है। बालक ध्रुव की भक्ति निष्काम थी, उसे केवल परमात्मा की गोद चाहिए थे। जिस दिन हमें भी परमात्मा की गोद मिल जाएगी, हमारा जीवन भी सार्थक हो जाएगा। भक्ति का मार्ग सरल भी है और कठिन भी। भक्तों को कई तरह की परिक्षाएं देना पड़ती है। स्थिति जो भी हो, भगवान के प्रति हमारा समर्पण भाव शत-प्रतिशत होना चाहिए। डावाडोल भक्ति काम नहीं आएगी। भक्ति में दृढ़ता का भाव होना चाहिए।  हमारे कर्मों में परमात्मा के प्रति श्रद्धा और समर्पण ही भक्ति का दूसरा नाम है।

       ये दिव्य विचार हैं अखंड प्रणव एवं योग वेदांत न्यास के प्रमुख महामंडलेश्वर स्वामीश्री प्रणवानंद सरस्वती के, जो उन्होंने आज गीता भवन सत्संग सभागृह में गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में आयोजित सात दिवसीय अनुष्ठान के अंतर्गत भागवत ज्ञान यज्ञ में प्रहलाद एवं ध्रुव के भक्ति प्रसंग की व्याख्या करते हुए व्यक्त किए। प्रारंभ में गीता भवन ट्रस्ट के अध्यक्ष राम ऐरन, मंत्री रामविलास राठी, सीए महेश गुप्ता, मनोज कुमार जगदीश प्रसाद गुप्ता कांता अग्रवाल, सविता रंजन चक्रवर्ती, प्रशंसा चक्रवर्ती, राजेन्द्र माहेश्वरी, दिनेश कुमार तिवारी आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। संतश्री की अगवानी, गीता भवन के न्यासी मंडल की ओर से प्रेमचंद गोयल, महेशचंद्र शास्त्री, मनोहर बाहेती, दिनेश मित्तल, हरीश जाजू, सत्संग समिति के जे.पी. फड़िया आदि ने की।

       महामंडलेश्वरजी ने कहा कि हम सबके जीवन में भी सुरूचि और सुनीति जैसी दो पत्नियां होती हैं। सुरुचि अर्थात मनमाना आचरण करने वाली और सुनीति अर्थात धर्म और नीति के रास्ते पर चलने वाली। कई बार हम इन दोनों में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते। बालक ध्रुव की भक्ति में की स्वार्थ नहीं था। निष्काम भक्ति ही फलीभूत हो सकती है। निरकुंश और मनमाना आचरण रोकने के लिए हमारे धर्मग्रंथों का आश्रय जरूरी है। गीता, भागवत और रामायण जैसे धर्मग्रंथ मनुष्य को चरित्र निर्माण की ओर प्रवृत्त करते हैं।