गुरु के समीप अपने दोषों की सरल भाव से आलोचना करना- पूज्य श्री जिनेंद्रमुनिजी म.सा.

रतलाम। आचार्य प्रवर पूज्य श्री उमेशमुनिजी म.सा. के सुशिष्य धर्मदास गणनायक प्रवर्तक पूज्य श्री जिनेंद्रमुनिजी म.सा. आदि ठाणा – 9 डीपी परिसर लक्कड़पीठा व पुण्य पुंज साध्वी श्री पुण्यशीलाजी म. सा. आदि ठाणा – 10 गौतम भवन सिलावटों का वास पर वर्षावास हेतु विराजित है। गुरु समर्पण समर्पण वर्षावास समिति के मुख्य संयोजक शांतिलाल भंडारी, श्री धर्मदास जैन श्री संघ के अध्यक्ष रजनीकांत झामर, चातुर्मास समिति के अजीत मेहता ने बताया कि डीपी परिसर, लक्कड़ पीठा पर प्रवर्तक श्रीजी, संत मंडल और साध्वी मंडल के सानिध्य में यहां प्रतिदिन विभिन्न आराधनाएं संपन्न हो रही हैं, जिसमें बड़ी संख्या में श्रावक, श्राविकाएं उत्साहपूर्वक आराधना कर रहे हैं।
रविवार को आयोजित धर्मसभा में प्रवर्तक श्री जिनेंद्रमुनिजी म.सा. ने फरमाया कि ऐसे तप का नाम बताओ जिसमें शरीर पर किसी प्रकार का जोर न पड़े और शरीर शुद्ध हो जाए। वह है आलोचना। यह आभ्यंतर तप है l आलोचना करने से क्या लाभ है? आलोचना करने से पाप निष्फल हो जाता है। सम्यक्त्व ग्रहण करना है तो आलोचना करवाई जाती है। आलोचना करने से आत्मा की शुद्धि होती है गुरु के समीप अपने दोषों की सरल भाव से आलोचना करना। जो व्यक्ति ठीक से अपने देषों की आलोचना नहीं करता है, उसकी आत्मा की शुद्धि नहीं होती है। सरल भाव से गुरु के सामने आलोचना करना चाहिए। यह ठीक उसी प्रकार से करना चाहिए, जिस प्रकार से कोई छोटा बच्चा अपने माता-पिता के सामने कोई काम हुआ या नहीं हुआ सरल भाव से बता देता है। दोषों की अलग-अलग स्थिति के अनुसार आलोचना विधि सहित करना चाहिए , यह मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
पूज्य श्री अतिशयमुनिजी म.सा. ने फरमाया कि संयम ग्रहण करने के बाद कौन सा अभ्यास करना चाहिए ? अपने स्वयं की पूर्व अशुभ क्रियाओं को भूलने एवं छोड़ने का प्रयत्न आवश्यक है। मनुष्य को पूर्व के भोगे सुख वास्तविक लगते हैं। ज्ञान में रमणता है तो वह पूर्व के कर्मों को देख विचार करते हैं कि अच्छा है मैंने छोड़ दिया। भले ही संसारी जीव विषयों को भोगते हुए सुख को प्राप्त करते हैं लेकिन वह वास्तविक सुख नहीं है। विषयों से प्राप्त इन्द्रिय-सुख तो दुख का निर्माता है। फिर भी उसे सुख के रूप में मान लिया है। वर्तमान का वातावरण अत्यंत दूषित है। माता-पिता को पुत्र का मोह होता है, बाद में कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो जाती है। संसारी जीव की हालत नींबू जैसी है, पूरा कस निकल जाता है, फिर भी जीव को संसार में रहने की इच्छा है। यदि बच्चों को अच्छे संस्कार देंगे , सही मार्ग पर लगाएंगे तो माता-पिता वीर बन जाते हैं । वरना पुत्र भी हाथ से जाता है और सम्मान भी।
रत्नपुरी गौरव श्री सुहासमुनिजी म.सा. ने फरमाया कि आलोचना करने से जीव को क्या लाभ हो रहा है l इतनी तप क्रियाएँ करते हुए भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता है। इसलिए स्वयं की वर्तमान की पाप क्रियाओं पर नियंत्रण करना है। जो आराधक मोक्ष के लक्ष्य को लेकर सम्यक प्रयत्न कर रहे हैं, वह आगे बढ़ रहे हैं। जीव धर्म क्रिया कुछ न कुछ सुख प्राप्ति के लिए करते हैं। उनके धर्म करने के पीछे कोई कारण होता है। तपस्या के माध्यम से पूर्व के पाप कर्मों को खत्म करने का लक्ष्य रखें , जिनवाणी के माध्यम से आगे बढ़ते रहें।
यहां पर बड़ी संख्या में आराधक तपस्या कर रहे हैं। गुरु समर्पण वर्षावास में तपस्याओं का मेला लगा हुआ है । कई तपस्याएं यहां पर पूर्ण हो चुकी है तपस्या का क्रम निरंतर जारी है। संचालन सौरभ कोठारी ने किया। प्रतिदिन अनेक श्री संघो के श्रावक श्राविकाएं यहां डीपी परिसर पर पहुंचकर दर्शन – वंदन, व्याख्यान , मांगलिक आदि का लाभ ले रहे है।