हिन्दी की उपयोगिता – महत्व को स्वीकार करें
राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रभाषा प्रत्येक देश की पहचान होते हैं – ये प्रतीक होते हैं देश के आत्मसम्मान के। लहराता हुआ राष्ट्रीय ध्वज देशवासियों को आत्मसम्मान के साथ व्यवहार करना सिखाता है। राष्ट्रीय ध्वज की रक्षा करने में प्रत्येक नागरिक गौरवान्वित महसूस करता है। राष्ट्रभाषा भी गर्व से लिखना-पढ़ना सिखाती है। राष्ट्रभाषा का उपयोग करना प्रत्येक देश में सम्मान की बात समझी जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में राष्ट्रीयध्वज और राष्ट्रगान अधिकारिक रूप से स्वीकार कर लिए गए किन्तु राष्ट्रभाषा का प्रश्न अभी तक अनसुलझा है।
अधिकतर देशों में राष्ट्रभाषा और राजभाषा एक ही होती है, किन्तु हमारे देश में राजभाषा और राष्ट्रभाषा में एकात्मकता – एकरूपता नहीं हो पाई। इसका कारण देश की विविधता है। भारत विविधता से भरा हुआ देश है। हमारे यहां अनेक संस्कृतियां हैं। सबकी अपनी जीवनशैली और भाषा है। दक्षिण भारत के राज्यों की अपनी संस्कृति और भाषा है। उत्तरपूर्वी राज्यों में भिन्न-भिन्न भाषा प्रचलित है। यद्यपि अधिकतर राज्य हिन्दी भाषी हैं किन्तु कई राज्यों की अपनी सम्पन्न भाषा है। उनका सम्पन्न साहित्य प्रादेशिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसी सम्पन्न विविधता वाले देश में किसी एक राष्ट्रभाषा का विकसित होना निश्चित रूप से बहुत ही कठिन है। यद्यपि बहुसंख्यक भारतीयों द्वारा उपयोग करने के कारण हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का स्वाभाविक अधिकार रखती है।
राजभाषा और राष्ट्रभाषा के अंतर को समझना भी आवश्यक है। किसी भाषा को शासकीय आदेश द्वारा राजकीय/शासकीय भाषा बनायी जा सकती है, जैसे अंग्रेजों ने अंग्रेजी को भारत में बना दिया था। अंग्रेजों के शासनकाल में सरकारी कामकाज अंग्रेजी भाषा में होने लगे थे। अंग्रेजों ने उनकी अपनी शिक्षा पद्धति को भारत में प्रचलित किया। शिक्षा भी उनकी ही भाषा अंग्रेजी में दी जाने लगी। इस कारण अंग्रेजी देश की अतिमहत्वपूर्ण भाषा बन गई। 500 रियासतों में बंटा भारत हमेशा विभाजित रहा। इसी कारण पहले मुसलमान आक्रमणकारियों के गुलाम हो गए और फिर अंग्रेजों के। इतना विभाजित होने के कारण देश की एक संस्कृति और भाषा विकसित नहीं हो पाई। अंग्रेजों ने विभाजित भारत का पूरा लाभ उठाकर सभी 500 रियासतों को अपना गुलाम बना लिया। ऐसे गुलाम देश की एक राष्ट्रभाषा विकसित होना असंभव था। इसी कारण सबसे अधिक प्रचलित होने के बाद भी हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।
भाषा अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम होता है। जब कोई भाषा अधिकतम व्यक्तियों की भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाती है तब वह राष्ट्रभाषा बन जाती है। इसके लिए उस भाषा को सरकार और आमजन दोनों का समर्थन मिलना आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343(1) के द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि के रूप में राजभाषा का दर्जा दिया गया, फिर भी अंग्रेजी का उपयोग होता रहा। आजादी के पूर्व महात्मा गांधी ने सन् 1917 में सबसे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की थी। लेकिन 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से इसे राजभाषा का दर्जा देने को लेकर सहमति जताई। इसी कारण प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। हिन्दी राजभाषा स्वीकार कर ली गई किन्तु राष्ट्रभाषा के रूप में जितनी स्वीकार्यता होनी चाहिए उतनी नहीं हुई। राजभाषा कानून से बनाई जा सकती है, राष्ट्रभाषा नहीं।
हिन्दी के राष्ट्रभाषा स्वीकार होने के मार्ग में कई बाधाएं हैं, जबकि हिन्दी विश्व की सबसे सरल भाषा है। हिन्दी की एक बहुत प्रमुख विशेषता है यह कि हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है। इसमें जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। यह विशेषता विश्व की किसी अन्य भाषा में नहीं। इस कारण हिन्दी विश्व की सबसे सरल भाषा है। भाषा विज्ञान में इसे स्वर-विज्ञान (फोनेटिक्स) कहते हैं।
अंग्रेजों के राज में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा की व्यवस्था प्रारंभ हुई। 1947 में अंग्रेज चले गए किन्तु अंग्रेजी स्थायी रूप से भारत में रह गई। अंग्रेजी प्रेम बढ़ता ही गया और अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा देना बहुत लोकप्रिय होता गया। यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। भारतीय मानसिक रूप से अंग्रेजी के गुलाम हो गए। गैर हिन्दी भाषी राज्यों ने हिन्दी को स्वीकार नहीं किया। हिन्दी विरोध के कारण अंग्रेजी प्रेम बढ़ता गया। हिन्दी भाषी राज्यों में भी अंग्रेजी की गुलामी बढ़ती गई। हम राजनैतिक दृष्टि से स्वतंत्र हो गए किन्तु मानसिक गुलामी से मुक्ति नहीं पा सके। यह भ्रम फैला दिया गया कि अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने से विद्यार्थी अधिक बुद्धिमान हो जाता है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। सच्चाई यह है कि विदेशी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने में रटना अधिक पढ़ता है। इससे विद्यार्थियों पर अनावश्यक दबाव बनता है। अंग्रेजी में रटा जाता है, समझा नहीं जाता। मातृभाषा में सरलता से समझा जा सकता है, रटने की आवश्यकता कम पड़ती है। नई शिक्षा नीति में इस कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया गया है। यह प्रशंसनीय है। अब मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी विषयों की शिक्षा भी मातृभाषा एवं क्षेत्रीय भाषा में दी जा सकेगी। यह निर्णय हमें अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से मुक्ति दिलाएगी। इससे हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा का विकास होगा। हमें यह समझना होगा कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में विरोधाभास नहीं। हिन्दी वैज्ञानिक होने के कारण बहुत सरल भाषा है और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना सभी देशवासियों के लिए उचित होगा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित अधिक से अधिक उपयोग द्वारा किया जा सकता है, कानून द्वारा नहीं। हिन्दी की सरलता – सहजता से सबको अवगत किया जाना चाहिए।
हम भारतीयों को यह समझना चाहिए कि राष्ट्रभाषा और मातृभाषा में विरोधाभास हो यह आवश्यक नहीं। गुलामी के काल में मातृभाषा के साथ अंग्रेजी का उपयोग होता रहा और वर्तमान में भी हो रहा है। अधिकतर देशवासियों ने मातृभाषा के साथ अंग्रेजी को सहजता से स्वीकार कर लिया था और आज भी उपयोग कर रहे हैं। गुलामी काल में जिस सहजता से अंग्रेजी को मातृभाषा के साथ स्वीकार किया उसी प्रकार हिन्दी को भी स्वीकार करना चाहिए। दक्षिण के कुछ राज्य उत्तर भारत से सांस्कृतिक टकराव की बात करते हैं। वे हिन्दु धर्म का विरोध करते हैं इस कारण हिन्दी का भी विरोध होता है। हिन्दु संस्कृति उदार रही है। हिन्दु धर्मावलम्बियों ने कभी भी किसी अन्य पर अपने आप को नहीं थोपा। हिन्दी भी नहीं थोपी गई। सभी संस्कृतियां और भाषाएं एक साथ फलती-फुलती रही इसीलिए सभी देशवासियों को बिना डरे हिन्दी को स्वीकार करना चाहिए।
हिन्दी की वैज्ञानिकता का लाभ क्षेत्रीय भाषा ले सकती हैं। यदि क्षेत्रीय भाषाएं हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाएं तो उनको अधिक से अधिक देशवासी पढ़ सकेंगे। इससे क्षेत्रीय भाषाओं को लाभ ही होगा। उनकी स्वीकार्यता बढ़ेगी और देश में उनका प्रचार-प्रसार होगा। हिन्दी भी सरलता से राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो पाएगी।