राजनेता भी सेवानिवृत्ति लेना सीखें

प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार प्राणी मात्र के सक्रिय जीवन जीने की अवधि निर्धारित है। जब कार्य क्षमता कम हो जाती है तो प्राणी धीरे धीरे कमजोर हो जाता है और अंत में प्रकृति में विलीन हो जाता है। यही व्यवस्था ईश्वर ने मनुष्य के लिए भी निर्धारित की है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए सरकार ने शासकीय सेवानिवृत्ति का प्रावधान किया है। शासकीय सेवकों के लिए सेवानिवृत्ति की व्यवस्था सभी देशों में है लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था विश्व में कहीं भी राजनीति करने वाले लोगो के लिए नहीं है। प्रकृति के अनुसार सभी की मानसिक और शारीरिक क्षमता समय के साथ कमजोर होती हैै; किसी की जल्दी, किसी की बाद में।

दुनिया भर के राजनीति करने वाले अपने काम से निवृत्ति लेने का विचार नहीं करते। वे अपने आप को अलौकिक अथवा अतिमानवीय समझते है। उन्हें यह भ्रम होता है कि उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता में कभी कमी नहीं आएगी। इसलिए वे कभी निवृत्ति ,रिटायरमेन्ट,की नहीं सोचते। प्रजातंत्र एवं अधिनायकवादी व्यवस्था दोनो के लिए यह सच्चाई है। सत्ता का नशा ऐसा ही होता है। प्रजातंत्र में तो कई बार नागरिक सत्ता से हटा देते है किन्तु अधिनायकवादी व्यवस्था में ऐसा नहीं होता। पुरातन काल में राजा मरते समय तक राज करते थे। अभी भी चायना के शी जिंगपिंग मरते समय तक चीन पर राज करना चाहते है। माओ ने भी ऐसा ही किया। रूस के पुतिन भी सेवानिवृत्ति की उम्र में दुनिया को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं। एशिया और अफ्रिका के कई देशों में ऐसे तानाशाह रहे हैं जो अपने आप को अमर समझते थे। उन्होंने उनके देश के लोगों को बहुत प्रताड़ित किया। अंत में वे समाप्त हो गए और उनके देश बर्बाद। अमेरिका में 80 से अधिक के ट्रम्प फिर चुनाव लड़ना चाहते हैं। वर्तमान राष्ट्रपति बाइडेन भी 80 के हो चुके हैं। वे भी अगला चुनाव लड़ना चाहते हैं। किन्तु यह प्रवृत्ति देश व दुनिया दोनो के हित में नहीं है। प्रजातांत्रिक देशो में भी बहुत उम्र के नेता भी सत्ता सुख भोगते रहना चाहते हैं। हमारे यहां 82 की उम्र में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। नेहरू ने भी मृत्यु पर्यतं पद पर रहे। मनमोहन सिंह भी 80 के बाद तक प्रधानमंत्री बने रहे। ये सब बहुत अनुचित है। इससे युवाओं के अवसर समाप्त होते हैं। लेकिन कुछ अपवाद भी हुए हैं। इसी माह न्यूज़ीलैंड की युवा प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने 42 की उम्र में प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया। वे 5 साल,92दिन प्रधानमंत्री रही। उनकी सत्ता को कोेई चुनौती भी नहीं थी; परन्तु उन्होंने कहा दूसरों को भी मौका मिलना चाहिए। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए कुंवारी मां बनने का भी इतिहास बनाया है। बिट्रेन के प्रधानमंत्री हैेराल्ड विल्सन ने भी 60 वर्ष का होने पर 1976 में पद छोड़ दिया था। ऐसे लोग बिरले ही हुए हैं जिन्होंने सत्ता त्याग दी। हमारे देश की बात भी कर लंे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में राजनीति उचित मार्ग पर नहीं चली। सत्ता का लोभ और भ्रष्ट्राचार बढ़ते ही गए। व्यक्ति पूजा और चापलूसी भारतीय राजनीति के अवांछनीय अंग हो गए। व्यक्ति पूजा और चापलूसी किसी भी प्रजातंत्र के लिए लाभकारी नहीं होते। भाजपा ने एक निश्चित उम्र के बाद सक्रिय राजनीति एवं महत्वपूर्ण पदो से सेवानिवृत्ति देने का प्रयोग प्रारम्भ किया है; किन्तु किसी अन्य दल में ऐसा नहीं किया गया। ऐसा करने का विचार भी अधिकतर राजनैतिक दलों में सम्भव नहीं है क्योंकि ये सब दल व्यक्ति और परिवार के द्वारा चलाए जाते हैं। साम्यवादी दलों में भी नेता आजीवन पदो पर बैठे रहते हैं। केरल के एक नेता 95 की उम्र मंे मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। इसलिए न्यूज़ीलैन्ड की जैसिंडा अर्डर्न की प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्होंने संदेश दिया कि राजनीति और सत्ता के परे भी जीवन होता है और व्यक्तिगत जीवन सबसे महत्वपूर्ण। प्रसंशा की बात है कि भारत के कुछ युवा भी इस प्रवृत्ति की और अग्रसर हो रहे हैं। वे बहुत ऊंचे वेतन के पदो को छोड़ कर विदेशो से अपने गांव में आकर खेती कर रहे है और सामाज सेवा भी। किन्तु ऐसे क्षमतावान बहादुर कम ही हुए हैं। वास्तव में हमारा सामाजिक परिवेश ही दुषित हो गया है। माता पिता भी बच्चो को अधिक से अधिक धन कमाने की मशीन ही बनाना चाहते हैं। बचपन से ही सीखाया जाता है-पैसा ही सब कुछ है। आज का समाज यह समझने को तैयार नहीं की धन से वस्तुएं-सुविधाएं खरीद सकते हों,सुख नहीं। अब धन सम्पदा बढ़ती जा रही है और मनुष्य दुःखी होता जा रहा है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक थोमस हार्डी ने लिखा है ’सुख मानसिक अवस्था है, परिस्थितियों का परिणाम नहीं। धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता। वर्तमान में समाज पर राजनीति का प्रभाव बहुत अधिक है। राजनीतिज्ञों जैसा पैसा और प्रभाव सभी पाना चाहते है। वे आज समाज के आदर्श है इसलिए कुछ समझदार राजनीतिज्ञों को आगे आकर समाज के सामने उचित आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। वे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर समाज सेवा का उपयोगी काम कर सकते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि समाज के प्रति भी उनका कर्तव्य हैं। सत्ता ही सेवा का एक मात्र माध्यम नहीं है। ऐसा करने से वे अधिक उपयोगी और सन्तुष्ट होगें।

प्रो.डी.के.शर्मा,रातलाम